एक शिष्य-गुरु थे । गुरुजी को कहीं से एक सोने की ईंट मिल गई । गुरुजी आगे चलते जाते और शिष्य उनके पीछे-पीछे चलता । शिष्य वह ईंट अपने सिर पर रखे हुए था । जहाँ पर जंगल आता गुरुजी शिष्य से कहते कि, "जरा संभलकर चलना । चलने में पैरों की आवाज नहीं होनी चाहिए, पत्तियों पर पैर रखकर नहीं चलना ।" इस प्रकार गुरुजी को डर था कि कहीं यह ईंट कोई हमसे छीन ना ले जाए और शिष्य को परेशान करता जाता था । शिष्य पे सोचा कि, "यह ईंट को तो हम लादे हुए हैं । और परेशानी हमको हो रही है । फिर गुरुजी क्यों डर रहे हैं ?" फिर उसने तय किया कि वह उस ईंट को अपने से दूर कर देगा जिससे की परेशानी का कारण ही नहीं रहेगा । मार्ग में एक कुआँ मिला । उसमें उसने धीरे से उस ईंट को फेंक दिया । आगे फिर जंगल मिला तो गुरुजी बोले, "बच्चा धीरे-धीरे आना, यहाँ पर डर है ।" शिष्य बोला, "गुरुजी डर को तो मैंने कुएँ में फेंक दिया है । आप अब आराम से चलो ।" *यहाँ पर गुरुजी को भय उस ईंट को खो देने का था अर्थात गुरुजी को उस ईंट से मोह था । और उस मोह के कारण ही उन्हें डर लगता था ।*
*सो भैया ! सब डर का कारण मोह ममता ही है । यदि मोह नहीं हो तो किसी प्रकार का डर नहीं होता । शरीर के मोह के कारण जीव को ऐसा लगता है कि, "हाय अब मेरा अंत समय आ गया है ।" तो यहाँ पर जीव को यह डर लग गया क्योंकि उसको मरने से डर लग गया और शरीर के नाश को अपना ऑआश समझने लगा । यदि यह जीव ऐसा विचार करे कि मैं तो ज्ञान मात्र हूँ । मैं अजर-अमर तत्व हूँ । मेरा कभी भी नाश नहीं होता है । मैं कभी असत् हो ही नहीं सकता । इस प्रकार अपने शुद्ध स्वरुप की दृष्टि होने से जन्म-मरण के डर का अभाव हो जाता है । अतः किसी भी कल्पनागत बाहरी वस्तु में कभी भी सुख नहीं मिल सकता ।*
पुस्तक का नाम - दृष्टान्त प्रकाश, शान्ति की खोज ।
संकलनकर्ता - जगनमल सेठी ।