यही आंखें जो स्त्रियों का सौंदर्य देखती हैं,यही तो परमात्मा का सौंदर्य भी देखेंगी।
और यही जीभ जो भोजन का स्वाद लेती है, यही तो परमात्मा का स्वाद भी लेगी।
और यही हाथ जो लोगों को छूते हैं, यही तो उसके भी चरणों का स्पर्श करेंगे।इंद्रियों को मारना मत। इंद्रियों को जगाना है।
इंद्रियों को पूरी त्वरा देनी है, तीव्रता देनी है, सघनता देनी है। इंद्रियों को प्रांजल करना है, स्वच्छ करना है, शुद्ध करना है। इंद्रियों को कुंवारा करना है। आंखें ऐसी हो जाएं शुद्ध कि जहां भी तुम देखो वहीं परमात्मा दिखाई पड़े।
यह फर्क समझ लेना तर्क का। यह विचार—भेद समझ लेना।एक हैं जो डरते हैं कि कहीं सौंदर्य को देखा तो वासना न जग जाए। तो फिर आंख ही फोड़ लो।
भोजन में स्वाद आया, तो कहीं ऐसा न हो कि भोजन—पटुता पैदा हो जाए! तो जीभ ही मार डालो।
यह जीवन—निषेध है।
भक्त जीवन के प्रेम में है; जीवन के निषेध में नहीं।
उसे कान बहरे नहीं करने हैं और आंखें अंधी नहीं करनी हैं।
उसे जीवन के रस को इस तरह पहचानना है, इस तरह जीवन के रस से संबंध जोड़ना है, इतनी प्रगाढ़ता से कि जहां रूप दिखाई पड़े वहां प्रार्थना पैदा हो। अभी रूप जहां दिखाई पड़ता है वहां वासना पैदा होती है यह सच है।
अब दो उपाय हैं; रूप देखो ही मत, ताकि वासना पैदा न हो;
और दूसरा उपाय है कि रूप को इतनी गहराई से देखो कि हर रूप में उसी का रूप दिखाई पड़े, तो प्रार्थना पैदा हो भक्त रूप में परम रूप देखने लगता है;सौंदर्य में परम सौंदर्य देखने लगता है; हर ध्वनि में उसी का नाद सुनने लगता है।
फिर आंखें फोड़ने की जरूरत नहीं रहती और कान फोड़ने की आवश्यकता नहीं रहती; इंद्रियों को मारने की जरूरत नहीं रहती। और ईश्वर ने जो भेंट दी है इंद्रियों की, वह अगर मारने के लिए ही होती तो दी ही न होती।
इंद्रियों को मारने का अर्थ हुआ: तुमने उसकी भेंट इनकार कर दी।
यह एक तरह की नास्तिकता है...........