पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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दूसरा प्रश्न?

कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं
कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं
ऐसे भी बातें होती हैं?
ऐसे ही बातें होती हैं!

एक तो मनुष्य की बुद्धि में चलते हुए विचारों का जाल है। वहां सब साफ-सुथरा है। वहां चीजें कोटियों में बंटी हैं, क्योंकि वहां तर्क का साम्राज्य है। और एक फिर हृदय में उठती हुई लहरें हैं। वहा कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है। वहा तर्क का साम्राज्य नहीं है। वहां प्रेम का विस्तार है। वहां हर लहर दूसरी लहर से जुड़ी है। वहां कुछ भी अलग- थलग नहीं है, सब संयुक्त है। वहा शून्य भी बोलता है, और बोलना भी सन्नाटे जैसा है। वहां नृत्य भी आवाज नहीं करता, और वहां सन्नाटा भी नाचता है।
तर्क की जितनी कोटियां हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते हो, टूटती चली जाती हैं। तर्क के जितने हिसाब हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते चले जाते हो, वे हिसाब व्यर्थ होने लगते हैं। जितनी धारणाएं हैं विचार की, वे धारणाएं बस जब तक तुम मस्तिष्क में जीते हो, खोपड़ी ही तुम्हारा जब तक घर है, तब तक अर्थपूर्ण हैं। जैसे ही थोड़े गहरे गए, जैसे ही थोड़ी डुबकी ली, जैसे ही थोड़े अपने में लीन हुए, जैसे ही हृदय के पास सरकने लगे, वैसे ही सब रहस्य हो जाता है। जो जानते थे, पता चलता है वह भी कभी जाना नहीं। जो सोचते थे कभी नहीं जाना, एहसास होता है जानने लगे। शात छूटता है, अज्ञात में गति होती है। किनारे से नाव मुका होती है और उस सागर में प्रवेश होता है, जिसका फिर कोई किनारा नहीं। इस किनारे से नाव मुका होती है, उस तरफ जहां फिर कोई दूसरा किनारा नहीं है, तटहीन सागर है हृदय का, वहा बड़ी पहेली बन जाती है।
कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं
कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं
ऐसे भी बातें होती हैं?
ऐसे ही बातें होती हैं!'
दिल को सुनने की कला सीखनी पड़ेगी। अगर पुरानी आदतों से ही सुना, जिस ढंग से मन को सुना था, बुद्धि को सुना था, अगर उसी ढंग से सुना, तो तुम हृदय की भाषा न समझ पाओगे। वह भाषा भाव की है। उस भाषा में शब्द नहीं हैं, संवेग हैं। उस भाषा में शब्दकोश से तुम कुछ भी सहायता न ले सकोगे। उस भाषा में तो जीवन के कोश से ही सहायता लेनी पड़ेगी।
और इसीलिए अक्सर लोग हृदय के करीब जाने से डर जाते हैं। क्योंकि हृदय के पास जाते ऐसा लगता है, जैसे पागल हुए जाते हैं। सब साफ-सुथरापन नष्ट हो जाता है। ऐसा ही समझो कि विराट जंगल है जीवन का, और तुमने एक छोटे से आंगन को साफ-सुथरा कर लिया है-काट दिए झाड़-झंखाड़, दीवालें बना ली हैं। अपने आंगन में तुम सुनिश्चित हो। जरा आंगन से बाहर निकलो, तो जंगल की विराटता घबड़ाती है। वहां खो जाने का डर है। वहां कोई राजपथ नहीं। पगडंडियां भी नहीं हैं, राजपथ तो बहुत दूर।
उस विराट बीहड़ जंगल में, जीवन के जंगल में तो तुम चलो, जितना चलो उतना ही रास्ता बनता है। चलने से रास्ता बनता है। चलने के लिए कोई रास्ता तैयार नहीं है। रेडीमेड वहां कुछ भी नहीं है। इसलिए आदमी डरता है, लौट आता है अपने अपान में। यही तो अड़चन है। बुद्धि तुम्हारा आंगन है, जहां सब साफ-सुथरा है, जहां गणित ठीक बैठ जाता है।
प्लेटो ने अपनी अकादमी, अपने स्कूल के द्वार पर लिख रखा था-जों गणित न जानता हो, वह भीतर न आए। प्लेटो यह कह रहा है, जिसने बुद्धि की भाषा न सीखी हो, वह यहां भीतर न आए।
मेरे द्वार पर भी लिखा है कुछ। प्लेटो तो लिख सकता है, क्योंकि बुद्धि के पास शब्द हैं, मैं लिख नहीं सकता। लेकिन मेरे द्वार पर भी लिखा है कि जो हृदय की भाषा न समझता हो, वह भीतर न आए। क्योंकि यहां हम उस जगत की ही बात कर रहे हैं, जिसकी कोई बात नहीं हो सकती। यहां हम उसी तरफ जाने की चेष्टा में संलग्न हैं, जहां जाना अपने को मिटाने जैसा है। जहा केवल वे ही पहुंचते हैं जो अपने को खोने को तत्पर होते हैं। तो डर लगेगा।
इसीलिए तो लोग प्रेम से भयभीत हो गए हैं। प्रेम की बात करते हैं, प्रेम करते नहीं। बात खोपड़ी से हो जाती है। करना हो, तो जीवन के बीहड़ जंगल में प्रवेश करना होता है। खतरे ही खतरे हैं। प्रेम के संबंध मे लोग सुनते हैं, समझते हैं, गीत गाते हैं, कथाएं पढ़ते हैं, प्रेम करते नहीं। क्योंकि प्रेम करने का अर्थ, अपने को मिटाना। अहंकार खो जाए, तो ही प्रेम का अंकुरण होता है। और जिसने प्रेम ही न जाना-जिस अभागे ने प्रेम ही न जाना-वह प्रार्थना कैसे जानेगा। वह तो प्रेम की
पराकाष्ठा है। वह तो प्रेम का आखिरी निचोड़ है, आखिरी सार है।
'कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं
कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं
ऐसे भी बातें होती हैं? ऐसे ही बातें होती हैं!
वहां भीतर ऐसी ही तरंगें चलती रहती हैं। वहां ही और ना में फासला नहीं। वहां हो भी कभी ना होता है, ना भी कभी ही होता है। वहां सब विरोध लीन हो जाते हैं एक में। उत्तर में मैं तुमसे कहना चाहूंगा-
कान वो कान है जिसने तेरी आवाज सुनी
आंख वो आंख है जिसने तेरा जलवा देखा
जब तक कान आदमियों की ही बात सुनते रहे, जब तक कान वही सुनते रहे जो बाहर से आता है, जब तक कान आहत नाद को सुनते रहे-जिसकी चोट पड़ती है कान पर और कान के पर्दों पर झन्नाहट होती है-तब तक कान-कान ही नहीं। और जब तक आंखों ने वही देखा जो बाहर से आकर प्रतिबिंब बनाता है, तब तक उधार ही देखा। तब तक सत्य का कोई अनुभव न हुआ। तब तक सपना ही देखा। जब कानों ने वह सुना जो भीतर से उमगता है, जो भीतर से उठता है, जो भीतर से भरता है, तभी कान -कान हैं। और जब आंखों ने वह देखा जो आंखें देख ही नहीं सकतीं, जब आंखों ने वह देखा जो आंख बंद करके दिखाई पड़ता है, जब आंखें अपने पर लौटीं, स्वयं को देखा, तभी आंखें हैं।
कान वो कान है जिसने तेरी आवाज सुनी
आंख वो आंख है जिसने तेरा जलवा देखा
सरको। भीतर की तरफ चलो। थोड़ी अपने से पहचान करें। संसार की बहुत पहचान हुई। बहुत परिचय बनाए, कोई काम नहीं आते। बहुत संग-साथ किया, अकेलापन मिटता नही। भीड़ में खड़े हो, अकेले हो बिलकुल। ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी भर भीड़ में रहते हैं और अकेले ही रह जाते हैं। और ऐसे भी लोग हैं जो अकेले ही रहे और क्षणभर को भी अकेले नहीं। जिन्होंने भीतर की आवाज सुन ली उनका अकेलापन समाप्त हो गया। उन्हें स्वात उपलब्ध हुआ। जिन्होंने भीतर के दर्शन कर लिए, उनके सब सपने खो गए। सपनों की कोई जरूरत न रही। सत्य को देख लिया, फिर कुछ और देखने को नहीं बचता।