वो बचपन के दिन भी क्या दिन थे , चाहत चाँद को पाने की करते थे और दोपहर से शाम तक कभी बुलबुल कभी तितली को पकड़ा करते। न दिन का होश न शाम की खबर। कभी मिट्टी पे हम तो कभी मिट्टी हमारे चेहरों को छूती, कभी हाथो पे तो कभी कपड़ो पे याद है न कैसे लग जाया करती थी। अपनी बचकानी हरकतों से हम दूसरों को कितना सताते थे न। वो बहती नाक , खिसकती निक्कर तो याद ही होगी। आज वक्त के इस आइने में हमारे कल की तस्वीर चाहे कितनी ही पुरानी हो गई हो पर जब भी सामने आती है ढेर सारी यादे ताज़ा हो जाती हैं और वो भी यादे अगर बचपन की हो तो और ही मज़ा आता है …आइये फिर डूबते हैं बचपन की शरारत भरी यादो में ....
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