रे प्राणी !
यदि चाहते हो विकास
मत संतोषी बन
स्पर्धा उसी के जगती
जो देखता रहता
क्या हो रहा आसपास ...
मत सिमट कर बैठ अपने में
जब तक है तू गृहस्थी में
संतोषी बनना - एक उम्र के बाद
गृहस्थी के कर्तव्यों को जब
कर लिया होता पूर्ण
वही होता सही मार्ग
पाने का मंद कषाय और
शांति का साथ ...
स्वयं को संतोषी मानकर
भाग्य भरोसे बैठने वाला
नहीं कर पाता पुरुषार्थ
नहीं होते परिणाम उसके शांत
ईर्ष्या का भाव उपजता उसके
देखकर दूसरों का व्यवहार / विकास ...
इसलिए !
मेरा यही कहना
जीवन में अपने संतोष वृत्ति को
दो यथायोग्य स्थान
एक उम्र के बाद
जीवन की शुरुवात में ही
अथवा बीच मझदार में
संतोषी मानकर स्वयं को
मत रोको अपना विकास
इच्छा और स्पर्धा से ही
संभव है विकास ....
जय जिनेन्द्र !
अनिल जैन "राजधानी"
१५.११.२०१७