पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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एक मुझे खयाल आता है, एक पेंटर था फ्रांस में। उसने एक चित्र बनाया और उसने एक चौरस्ते पर अपनी पेंटिंग लगा दी और गांव भर के लोगों से सलाह ली कि इसमें क्या-क्या गलतियां हैं। किताब रख दी, उसमें सारे लोग लिख गए आ-आ कर कि इसमें यह गलती है, इसमें यह गलती है, इसमें यह गलती है। सारी किताब भर गई! उसकी समझ के बाहर हो गया कि इतनी गलतियां एक पेंटिंग में करना भी बड़ी मुश्किल बात है! एक पेंटिंग छोटी सी, उसमें इतनी गलतियां करनी, एक बड़ी प्रतिभा की जरूरत है, तब हो सकती हैं। उसने अपने गुरु से कहा।
गुरु ने कहा, अब तू एक काम कर, इस पेंटिंग को टांग दे और नीचे लिख दे कि इसमें जहां गलती हो उसको सुधार दिया जाए।
उसको कोई सुधारने नहीं आया। उस गांव में एक आदमी ने भी ब्रश उठाकर उसकी पेंटिंग में कोई सुधार नहीं किया।

हमारा जो माइंड है, हमारा जो काम करने का ढंग है, वह हमेशा गलत क्या है वह हमें दिखाई पड़ जाता है। लेकिन ठीक क्या करना है वह हमारे खयाल में नहीं आता।

रवींद्रनाथ ने जब पहली दफा स्कूल खोला तो कोई भरोसे का आदमी नहीं था यह। तो कौन इसके पास अपने बच्चों को भेजे? डर यही था कि बच्चे बिगड़ न जाएं? क्योंकि रवींद्रनाथ वीणा बजाएंगे, नाचेंगे, गीत गाएंगे। बच्चे क्या सीखेंगे? ये सब नाचना और गीत गाना और संगीत, यह सब ठीक बातें नहीं हैं। ये अच्छे लोगों के लक्षण नहीं हैं। फिर भी कुछ मित्रों ने बच्चे दिए। लेकिन बच्चे ऐसे थे, जो पहले ही इतने बिगड़ चुके थे कि रवींद्रनाथ उनको बिगाड़ नहीं सकते थे। इस आशा में दिए कि इनको तुम क्या बिगाड़ोगे? दस-पंद्रह-बीस बच्चों को लेकर रवींद्रनाथ ने वहां स्कूल शुरू किया।

बंगाल के एक बहुत बड़े विचारक थे, उन्होंने भी अपना बच्चा दिया हुआ था। वे तीन-चार महीने बाद देखने गए कि क्या हालत है। देखा एक चेरी के वृक्ष के नीचे क्लास लगी हुई है। रवींद्रनाथ टिक कर बैठे हुए हैं। पांच-सात बच्चे नीचे बैठे हुए हैं, पंद्रह-सोलह बच्चे ऊपर वृक्ष पर चढ़े हुए हैं। फल पक गए हैं, बच्चे फल खा रहे हैं। पांच-सात बच्चे नीचे बैठे हैं। किताब बंद है, रवींद्रनाथ आंखें बंद किए बैठे हैं। यह क्लास लगी हुई है। क्रोध से भर गए वह मित्र, जाकर हिलाया रवींद्रनाथ को और कहा, यह क्या हो रहा है? यह स्कूल है? यह क्लास लगी हुई है? यह पढ़ाई हो रही है? यह क्या है कि लड़के ऊपर चढ़े हैं? रवींद्रनाथ ने कहा कि मैं भी दुख अनुभव कर रहा हूं, लेकिन जो ऊपर चढ़े हैं उनके लिए नहीं, जो नीचे बैठे हैं उनके लिए। फल पक गए हैं, और फल बुला रहे हैं। मैं बूढ़ा हो गया, चढ़ नहीं सकता हूं, लेकिन आत्मा मेरी वही है। मैं इन बच्चों के लिए हैरान हो रहा हूं कि ये पांच-सात बच्चे किताबें खोलें क्यों बैठे हैं? जब फल बुला रहे हों और जब चढ़ने की ताकत हो, तब जो नीचे रह जाए, वह रुग्ण है, अस्वस्थ है, बीमार है। मैं इन बच्चों के लिए चिंतित हूं। आंख बंद करके मैं इन्हीं के लिए सोच रहा था कि क्या करूं कि ये भी वृक्ष पर चढ़ जाएं। लेकिन जिन्होंने फलों की पुकार नहीं सुनी, वे मेरी पुकार सुनेंगे?
यह जो जीवन को जीने की कला, कुछ और तरह की शिक्षा होगी। जीवन को जीने का मार्ग बच्चों को किसी और दिशा में दीक्षित करेगा। लेकिन हम अब तक जो करते रहे हैं, वह जीवन की कला नहीं है, वह जीवन से भागने की कला है।

ओशो - नये भारत की खोज...