सुना है मैंने, एक मुसलमान फकीर के जीवन में कहा गया है। फकीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो फरिश्ते उतरे, और उन्होंने उस फकीर को कहा कि परमात्मा ने हमें भेजा है कि तुम कोई वरदान मांग लो। तुम जो चाहो! तुम पर प्रभु प्रसन्न हैं। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन अब! अब तो कोई चाह न रही। देर करके तुम आए। जब चाह थी बहुत, कोई आया नहीं पूछने। और अब जब चाह न रही, तब तुम आए हो?
उन देवताओं ने कहा, हम आए ही इसीलिए हैं। जब चाह नहीं रह जाती, तभी तुम इतने पवित्र होते हो कि तुमसे पूछा जा सके कि कुछ चाहते हो? चाह के कारण ही तो हमारे और तुम्हारे बीच दरवाजा बंद था। चाह गिर गई, इसलिए दरवाजा खुला। अब हम तुमसे पूछने आए हैं कि तुम कुछ मांग लो।
उस फकीर ने कहा, लेकिन अब मैं क्या मांग सकता हूं! लेकिन जितनी फकीर जिद्द करने लगा कि मैं कुछ भी नहीं मांग सकता, उतने ही फरिश्ते जिद्द करने लगे कि कुछ मांग लो।
जिंदगी ऐसी ही उलटी है। जो लोग जितनी जिद्द करते हैं कि यह चाहिए, उतना ही चूकते चले जाते हैं। जो दौड़ते हैं पाने को, खो देते हैं। और जो पाने का खयाल ही छोड़ देते हैं, उनके पीछे सब कुछ दौड़ने लगता है।
उन देवताओं ने चरण पकड़ लिए और कहा कि परमात्मा हमसे कहेगा कि तुम इतना भी न समझा पाए! वापस जाओ। तुम कुछ मांग लो। तो उस फकीर ने कहा कि तुम्हीं कुछ दे दो, जो तुम्हें लगता हो। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें वरदान देते हैं कि तुम जिसे भी छू दोगे, वह बीमार होगा तो स्वस्थ हो जाएगा, मुर्दा होगा तो जीवित हो जाएगा। अगर सूखे पौधे को तुम छू दोगे, तो अंकुर निकल आएंगे।
उस फकीर ने कहा, इतनी तुमने कृपा की, थोड़ी कृपा और करो। और वह कृपा यह कि मेरे छूने से यह न हो, मेरी छाया के छूने से हो। मैं जहां से निकल जाऊं, मेरी छाया पड़ जाए सूखे वृक्ष पर, वह हरा हो जाए, लेकिन मुझे उसका पता न चले। अगर मेरे छूने से होगा, तो मेरा अहंकार पुन: निर्मित हो सकता है। मुझे पता न चले।
नहीं तो यह तुम्हारा वरदान, मेरे लिए अभिशाप हो जाएगा। मुझे पता न चले। मेरी शक्ति का मुझे पता न चले। मेरे संतत्व का मुझे पता न चले। मेरे रहस्य का मुझे पता न चले। यह जो चमत्कार प्रभु मुझे दे रहा है, यह मुझे पता न चले।
वह फकीर चलता गांव में, सूखे वृक्षों पर छाया पड़ जाती, वे हरे हो जाते। कभी किसी बीमार पर उसकी छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ। हो जाता। लेकिन न तो उस फकीर को पता चलता और न उस बीमार को पता चलता, क्योंकि छाया के पड़ने से यह घटना होती।
यह तो कहानी है, लेकिन सूफी फकीर कहते हैं कि जब भी कभी कोई संत पैदा होता है, तो न उसे खुद पता होता है कि मैं संत हूं न किसी और को पता चलता है।
पता चलना, ठोस हो जाना है। पता न चलना, तरल होना है, विरल होना है, हवा की तरह होना है। जिन्हें हमने भगवान भी कहा है, बुद्ध या महावीर को, उन्हें खुद कुछ भी पता नहीं है। वे निर्दोष बच्चों की भांति हैं।
हवा की तरह पवित्रता भी है, अनसेल्फकांशस; अनकांशस नहीं, अनसेल्फकांशस। अचेतन नहीं; अहंकार का जरा भी बोध नहीं है। अहंकार की चेतनता जरा भी नहीं है। और दिखाई नहीं पड़ना। जो भी चीज दिखाई पड़ने लगती है, वह पदार्थ बन जाती है। दिखाई पड़ना पदार्थ का गुण है, मैटर का गुण है। चैतन्य का गुण होना है, दिखाई पड़ना नहीं।
इसलिए हमें शरीर दिखाई पड़ते हैं, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही परमात्मा है।
वायु हमें दिखाई नहीं पड़ती, पर है। और अगर हमें किसी को सिद्ध करना हो कि वायु है, तो हम उसकी आंखों का उपयोग न कर सकेंगे। और अगर कोई जिद्द ही करे कि मेरे सामने प्रत्यक्ष करो, तो हम कठिनाई में पड़ जाएंगे। यद्यपि जो हमसे कह रहा है कि वायु को प्रत्यक्ष करो, वह भी वायु के बिना एक क्षण जी नहीं सकता है। एक श्वास आनी बंद होगी, तो प्राण निकल जाएंगे। वायु ही उसका प्राण है, जीवन है। लेकिन फिर भी वायु को सामने रखा नहीं जा सकता, प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। हम अनुभव कर सकते हैं। लेकिन किसी के शरीर में लकवा लग गया हो और उसे स्पर्श का कोई बोध न होता हो, तो हवाएं बहती रहें, उसे कोई पता नहीं चलेगा। वह श्वास भी लेगा, उसी से जीएगा और पता नहीं चलेगा।
कहते हैं कि मछलियों को सागर का पता नहीं चलता। नहीं चलता होगा। क्योंकि सागर में ही पैदा होती हैं, सागर में ही बड़ी होती हैं, सागर में ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें पता नहीं चलता होगा, क्योंकि जो इतना निकट है और सदा निकट है, उसका पता चलना बंद हो जाता है।
वायु सदा निकट है, चारों तरफ घेरे हुए है। वही हमारा सागर है, जिसमें हम जीते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा भी ठीक ऐसा ही है, चारों तरफ घेरे हुए है। उसके बिना भी हम क्षणभर नहीं जी सकते। वायु के बिना तो हम जी भी सकते हैं, उसके बिना हम क्षणभर नहीं जी सकते। वह हमसे वायु से भी ज्यादा निकट है। वह हमारे प्राणों का प्राण है। लेकिन उसका भी हमें कोई पता नहीं चलता।
गीता दर्शन-(भाग-5)-प्रवचन-125
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