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पिंकी जैन
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सपनों में ही सही
एक बार फिर
अपने घर हो आऊँ।
वो घर,वो दीवार,
वो ड्राइंग रूम,वो आंगन
वो रास्ते, वो स्कूल,
वो समोसे की दुकान,
वो गोलगप्पे का ढेला।
वो संगी,वो साथी बस
एक बार देख मैं आऊँ।
जी चाहता है कि
जोर जोर से गाऊँ,
बिन सुर के ही
खूब शोर मचाऊँ।
बाँध पैरों में घुंघरू
कत्थक की ताल पर
थिरकती जाऊँ।
फिर एक बार दरवाजे के
पीछे छुप कर खड़ी हो जाऊं,
कोई आये तो जोर से "भौ "
कह के डराऊँ।
जी चाहता है कि आईने में
मुँह तरह तरह के बनाऊं,
और खूब कहकहे लगाऊं।
जी चाहता है फिर पलंग
के नीचे जा छुप जाऊँ,
आवाज दे माँ रख आंखों पे हाथ,
तभी.............अचानक ,
धम्म.................से,
सामने उनके मैं आऊँ।
जी करता है आज फिर से
पकड़ उँगली माँ पापा की
रास्ते मे झूला झूलती जाऊँ,
उन्हें पता न चला ,
ये सोच के इतराऊँ।
कोई जो पूछे परिचय,
झट पापा का और माँ
का नाम बताऊँ।
न जाने कब लिया था
आखरी बार पापा
और माँ का नाम।
खो ही गई है अब
उनकी पहचान।
लगता है हम औरतों की
खुद के घर से नही रह
जाती कुछ पहचान।
अरसा हुआ नही पुकारा
अपनी जुबान से शब्द "माँ"
बस एकबार आ जाये सामने
तो चिल्ला चिल्ला के रोऊँ
जोर से गले लग मैं जाऊँ।
धुंधला गई है अब तो
शक्ल भी उनकी ,
खो गए न जाने कहाँ,
ये सोच सोच घबराऊँ।
रोके कहाँ रुकी है,
समय की गति ,
सोच यही, चुप हो जाऊँ।
चलूँ उठूँ काम मे लगूँ,
स्वप्न तो स्वप्न ही है
खुद को ही समझाऊं।
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