आसमानो मे मैं तब उड़ी जब उम्र ढलान पर थी-
वो अर्ध शतक के करीब करीब थी, अपनी जिम्मेदारी को अलविदा कह चुकी एक सुबह आसमान मे उढ़ते परिंदो को देख उनमे अपने आप को खोजने लगी तभी सावन की पहली बुंद उसके ललाट को छू कर गीरी उसने उस ठंडी बूंद के मखमली अहसास को अपनी ऑखो मे बंद कर लिया तभी उसे अपने सोये अरमानो के जागने कि पहली आहट सुनाई दि....वो दौड़कर तुरन्त शयन कक्ष से आईने को ले आई ...कभी अपने चेहरे को देखती तो कभी बालो की लटो को अपने पल्लू से हटा अपने आप को निहारती.... जिनके लिये अभी तक वो ता उम्र हैरान परेशान रही वहां आज कोई भी उसको देखने या सुनने वाला नहीं था , कभी हंसती तो कभी वो खुद से बात करना चाह ही रही थी तभी अचानक बच्चपन की एक सखी का फोन आता है , तभी कुछ ऐसी बात हुई जिसे सुन वो खुशी से झुमने लगी |
जी हा दिन तय हो चुका था मुलाकातो के साथ साथ सफर का ,अब वो पहली बार खुद का समान पैक रही थी अपनी उन सखीयो संग वहा जाने को जहां कभी वो अपने पति या बच्चों के जाने पर समान पैक किया करती थी.....हां हां वो पांचों सखी 'गोवा' जाने को निकल चुकी थी|
बंधनो की साड़ीयो को छोड़ अब वो लेगीस व जींस टॉप मे समा चूकी थी | पल्लू से ढके रहने वाले बाल अब खुल हवा में अपने उड़ने की दिशा तय करने लगे थे होटो पर लिपस्टिक के मन माफिक शेड बार बार बदल रहे थे, अब अपने बारे मे वे हर निर्णय वो खुद ही तय कर रही थी,
सुबह की चाय से लेकर रात का डिनर चुपके से टेबल पर अपने आप सर्व हो रहे थे वही बिना मदिरा के महफिलो के दौर मे वो पांचो खोये खोये थे , कब दिन बीते कब
धीरे धीरे वक्त आ गया घर जाने का, अब वापसी का समान पैक होने लगा था पहली बार लगा के पॉच दिन वो खुद से खुद के लिये जी चुकी थी ,वो बस एक ही बात सोच रही थी "मैं आसमान मे तब उढ़ी जब उम्र ढलान कि ओर चल चुकी थी " .|