जनाब राहत इन्दौरी साहब का वह शे'र था,
*"सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में*किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है "*
उनको उन्हीं की भाषा में विनम्र जवाब:-खफा होते हैं हो जाने दो, घर के मेहमान थोड़ी हैं*जहाँ भर से लताड़े जा चुके हैं, इनका मान थोड़ी हैं*ये कृष्ण-राम की धरती,सजदा करना ही होगा*मेरा वतन ये मेरी माँ है, लूट का सामान थोड़ी है*मैं जानता हूँ, घर में बन चुके हैं सैकड़ों भेदी*जो सिक्कों में बिक जाए वो मेरा ईमान थोड़ी है*मेरे पुरखों ने सींचा है इसे लहू के कतरे कतरों से*बहुत बांटा मगर अब बस, खैरात थोड़ी है*जो रहजन थे उन्हें हाकिम बना कर उम्र भर पूजा मगर अब हम भी सच्चाई से अनजान थोड़ी हैं ?बहुत लूटा फिरंगी तो कभी बाबर के पूतों ने*
*ये मेरा घर है मेरी जाँ, मुफ्त की सराय थोड़ी है समझे *राहत इंदौरी जी...