*श्री साई अमृत कथा कहती है..*
*जिस तरह दर्पण एक छलावा होता है उसी तरह संसार भी एक छलावा ही है। दर्पण अपनी जगह स्थिर होता है। जो भी उसके आगे आ जाता है, उसका प्रतिबिंब उसमें नज़र आता है। हटते ही प्रतिबिंब भी हट जाता है। इसी तरह संसार है। इसमें सुख होता नहीं पर दिखता है। सुख के दर्पण में भी दुःख के ही चेहरे होते हैं। क्षणिक रूप से इच्छाओं की पूर्ति होने पर जो सुख समझ में आता है, वह असल में भविष्य के दुःख की आहट ही होती है क्योंकि संसार में रहते हुए हम ख़त्म होने वाली वस्तुओं में अपने सुख को आश्रित और परिभाषित कर देते हैं। उन वस्तुओं का नाश होते ही उन पर आश्रित सुख दुःख में परिवर्तित हो जाता है। असल और स्थाई सुख तो संसार से बाहर साई के चरणों में होता है जो नाशवान नहीं हैं। सुख की दौड़ बाहर की ओर नहीं, अंदर की ओर होनी चाहिए। वहाँ मिलने वाला सुख आनंद में बदल जाता है।*