क़श्मक़श के दरमियाँ,लो हम खड़े थक-हार के
क्या लगेंगे पार हम, बिन नाव-बिन पतवार के
ना शुरू करते बना है,कारवाँ जो थम सा गया
जीने की इस आरज़ू में हर नया मौसम गया
ज़द्दोज़हद के दरमियाँ ,लो हम बढ़े मन मार के
क्या लगेंगे पार हम बिन नाव-बिन पतवार के
ज़हन में कुछ और था,पर कर रह हैे कुछ और हम
इस तरह, डगमग हुए जाते रहे मेरे क़दम
रंज-ओ- ग़म के दरमियाँ, हम डरे हैं हार से ,
क्या लगेंगे पार हम बिन नाव- बिन पतवार के
इक लम्हा गिरते भी हैं, इक लम्हा उठते भी हैं
इक लम्हा थमते भी हैं ,दूजे लम्हा बढ़ते भी हैं
रहम-ओ-करम के दरमियाँ ,वक़्त गुज़ार के
क्या लगेंगे पार हम, बिन नव-बिन पतवार के
क़श्मक़श के ,दरमियाँ हम खड़े थक-हार के
क्या लगेंगे पार हम,बिन नाव- बिन पतवार के