दलबदलुओं के चुनाव लड़ने पर छह साल की रोक लगना चाहिए, सभी दलों को इस संकट पर राष्ट्रीय स्तर की खुली बहस करनी चाहिए।
आजादी के बाद देश में लोकसभा के 17 और राज्यसभा, राज्य विधानसभा और विधान परिषदों के सैकड़ों चुनाव हो चुके हैं। संविधान में लोकतांत्रिक प्रणाली के माध्यम से ही विधायिका के चयन का विधान है। बहुमत से केंद्र व राज्य की सरकारें बनती हैं और मत विरोध होने पर गिर जाती हैं। दुनिया भर में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वाेच्च मूल्य हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों से राजनैतिक मूल्यों में तेजी से नैतिक गिरावट देखी जा रही है। खुद राजनेता और दल इस मूल्यहीनता को बढ़ावा देते रहे हैं। इसके पीछे इन दोनों की अति महत्वाकांक्षा ही कारण है जो लोकतांत्रिक प्रणाली को कठघरे में खड़ा कर रही है। इससे दल-बदल को बढ़ावा मिल रहा है। मतदाता भले एक पार्टी विशेष के प्रत्याशी को वोट देकर जिता रहे हैं, किंतु वही नेता चुनाव जीतने के बाद दल-बदल कर रहे हैं।
संघीय व्यवस्था को दल-बदल से बचाने के लिए दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के कदमों की सराहना करनी चाहिए। पहले स्व. राजीव गांधी, जिन्होंने 1985 में पहली बार दल-बदल विरोधी कानून बनाकर भारतीय संविधान में 52वां संशोधन कराया और दल-बदल को गैर कानूनी करार दिया। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों को छोड़कर कई छोटे-छोटे राज्य भी हैं, जहां सदन में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 100 से भी कम है। उस दशक में इन राज्यों में छोटे-छोटे दलों का एक तिहाई की संख्या में दल-बदल का सिलसिला चल पड़ा। जनता किसी दल को वोट देती और विजयी उम्मीदवार किसी दूसरी विचारधारा वाले दल में शामिल होने लगे।
लोकतंत्र के सामने आए इस मूल्यहीनता व राजनीतिक चरित्र हनन के दौर को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान में 91वां संशोधन और 10वीं अनुसूची में बदलाव कर दल-बदल को और सख्त कर दल बदलने के लिए पूर्व में स्थापित एक तिहाई की संख्या को बढ़ाकर दो तिहाई कर प्रावधान और कड़े कर दिए। लेकिन देश का दुर्भाग्य देखिए कि नेताओं ने आगे चलकर अपनी कुटिल चालों से इन स्थापित मूल्यों को ध्वस्त कर दिया। अटल जी की सरकार के समय सन 2000 में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बने राष्ट्रीय आयोग (एनसीआरडब्ल्यूसी) ने भी अपने प्रतिवेदन में दलबदलुओं को मंत्री पद, सार्वजनिक लाभ का पद नहीं देने की अनुशंसा की थी। ऐसे नेताओं को नई विधानसभा के गठन या वर्तमान विधायिका के कार्यकाल तक टके लिए दंडित किए जाने की सिफारिश की थी। अटल जी ने तब नहीं सोचा होगा कि उनकी ही पार्टी के नेता आगे चलकर न सिर्फ दलबदल की स्तरहीन शृंखला शुरू करेंगे, बल्कि ऐसे लोगों को बिना विधायक बने मंत्री पद सहित लाभ के पदों से भी नवाजेंगे।
राजनैतिक विचारधारा का यह पतन अब पाताल तक जा पहुंचा है। मध्यप्रदेश का दलबदल अब तक का निकृष्टतम उदाहरण है। जहां दो तिहाई दलबदल कराने में असफल रहे नेताओं ने 22 विधायकों से इस्तीफा कराकर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार गिराने का अनैतिक कार्य करते हुए दलबदल किया और भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से 14 को बिना विधायक बने ही मंत्री बना दिया गया। ऐसा ही कलंकित कांड कर्नाटक में हुआ था, जहां कांग्रेस के 10 विधायकों के इस्तीफे करवाकर कांग्रेस व जदयू की सरकार गिराई गई और भाजपा ने पिछले दरवाजे से सरकार बनाई।
लोकतंत्र के मुंह पर उस समय कालिख लगी, जब आंध्रप्रदेश में 4 विधायक वाली भाजपा के पाले में तेलुगु देशम पार्टी के चार राज्यसभा सदस्य शामिल हो गए। क्या ऐसे सदस्य सही अर्थों में अपने राज्य या दल का सदन में प्रतिनिधित्व करने के लिए नैतिक रूप से योग्य हैं? इस समय की राज्यसभा एक ऐसी राज्य सभा बनने जा रही है जिसमें अनेक सदस्य पाला बदलकर या इस्तीफा देकर भाजपा से राज्यसभा की कुर्सी पा चुके हैं। भविष्य मौजूदा वक्त की राज्यसभा की दास्तां जरूर लिखेगा कि कैसे हर हाल में राज्यसभा में बहुमत जुटाने के लिए सत्र दर सत्र और साल दल साल सदस्य जुटाए गए थे।
आज भारत के सभी दलों को चाहिए कि इस संकट पर राष्ट्रीय स्तर की खुली बहस हो। निजी स्वार्थों के चलते आए दिन हो रहे दलबदल को कैसे रोका जाए। ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिसमें दल छोड़ने वाले सांसद, विधायक को कम से कम छह साल के लिए चुनाव लड़ने, मंत्री बनने या लाभ के किसी भी पद पर नियुक्ति करने से निरर्हित किया जाए। राष्ट्र निर्माण के इस चिंतन में हर देशवासी की भागीदारी जरूरी है।
-दिग्विजय सिंह, राज्यसभा सांसद