इतना कुछ पहना कर जकड़ दिया जाये तो ग़ुलामी निश्चित है , सुंदर खिलौना बनाकर पशु की तरह क़ैद करना। स्त्रियों को बडी देर में समझ आयेगा शायद । उनके वस्त्र भी उसी तरह डिज़ायन किये गये हैं कि क़ैद रहो जहॉं रखा जाये। और गाथायें भी उसी तरह बुनी गई हैं इर्दगिर्द ग़ुलामी के। आधी आबादी को शोभा की वस्तु बनाकर कोई समाज क्या कभी दुनिया का नेतृत्व कर सकता है ? भारत के तानेबाने के मूल में जब तक स्त्री ग़ुलामी किसी भी रूप में मौजूद है कुछ बडा परिवर्तन मत सोचिये। दरअसल सभी धर्म पंथ मूलत: स्त्रीविरोधी हैं। स्त्री मुक्ति यानि समाज की सही ताकत के खिलने का रास्ता धर्मों के नाश में ही छिपा है। अब समझ में आया क्यों स्त्रियों की भीड उन बाबाओं धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर लगी रहती है जहॉं उन पर बलात्कार भी होता है । जाति और योनि के ये कटघरे ही भारतीय समाज की असली दासता के महत्वपूर्ण बिंदु है। कोई विकास नाम की चीज़ संभव नही जब तक स्त्री क़ैद है। सरकारें समझती है कि सड़क पुल हवाईअड्डे बनाना ही विकास है जबकि विकास तो दिमाग़ और मन के वास्तविक पोंगापंथी जकड़न को दूर करने की प्रक्रिया है। दिमाग़ आधुनिक होगा तो ढेर सारी समस्यायें समाज की अन्तर्निहित ताकत से हल हो जाती हैं जैसे स्वच्छता, बेटी बचाओ, साक्षरता, दहेज, नागरी व्यवहार, तीन तलाक, स्वस्थ जीवन आदि आदि। सरकारें इन कामों को जब करने लगती हैं तो असफलता अपरिहार्य है । यह अफ़सरशाही का पैसाखाऊ कार्यक्रम बन जाता है क्योंकि नेता निपट मूर्ख व ज़ाहिल हैं। स्त्रीमुक्ति और जाति विनाश कोई आसान काम न होगा, दो तीन पीढ़ियों की मानसिकता बदलनी होगी और जिन वर्गों वर्णों का लंबे समय से निहित स्वार्थ इसी में छिपा है उनकी मुक्ति भी सोचनी होगी। यह सबसे बडा काम है और राजनीति के बस का नहीं पर उसे छोड़कर भी संभव नहीं। नये नये रास्ते सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक और राजनीतिक खोज लिये जाते हैं कि कैसे भी इस बुनियादी समस्या से ध्यान हट जाये। आज की पूरी राजनीति ही इन दो मुद्दों से भारतीय जन का ध्यान हटाने की राजनीति है। बाकी सब सतह की चीज़ें है, सत्तर साल से लगे हुयें है ; सौ साल और लगे रहेंगे तब भी शायद ही इंच दो इंच खिसक जाये । हॉं कई करोड अंफसरों पुरोहितों मौलानाओं नेताओं के घर मुद्राओं से पट जायेंगें , तो क्या ?