एक पागल औरत एक दिन सुबह अपने गांव से नाराज होकर चली गई। गांव भर के लोगों ने कहा कि यह क्या कर रही हो? कहां जा रही हो? उसने कहा कि अब मैं जा रही हूं, तुमने मुझे बहुत सताया, अब कल से तुम्हें पता चलेगा! पर उन लोगों ने कहा कि बात क्या है? उसने कहा, मैं वह मुर्गा अपने साथ लिए जा रही हूं जिसकी बांग देने पर इस गांव में सूरज ऊगा करता था। अब यह सूरज दूसरे गांव में ऊगेगा। वह दूसरे गांव पहुंच गई। सुबह सूरज ऊगा–मुर्गे ने बांग दी, सूरज ऊगा, उसने कहा, अब रोते होंगे नासमझ, क्योंकि अब सूरज इस गांव में ऊग रहा है।
उस बूढ़ी औरत के तर्क में कोई खामी है? जरा भी नहीं। उसके मुर्गे की बांग देने से सूरज ऊगता था। और फिर जब दूसरे गांव में भी बांग देने से सूरज ऊगा, तब तो बिलकुल पक्का ही हो गया न, कि अब उस गांव का क्या होगा! मुर्गे ऐसी भ्रांति में नहीं पड़ते, लेकिन मुर्गों के मालिक पड़ जाते हैं। मुर्गे तो सूरज ऊगता है, इसलिए बांग देते हैं, मुर्गों के मालिक समझते हैं कि अपना मुर्गा बांग दे रहा है, इसलिए सूरज ऊग रहा है।
हम सबका चित्त ऐसा है। भविष्य तो आता है अपने से। वह आ ही रहा है, वह हमारे रोके न रुकेगा। कल आते हैं अपने से, वे हमारे रोके न रुकेंगे। हम अपने कृत्य को पूरा कर लें, इतना काफी है, उसके बाहर हमें होने की जरूरत नहीं है।
कृष्ण इतना ही कहते हैं कि तुम्हारा कृत्य पूरा हो–“द एक्ट मस्ट बी टोटल’। “टोटल’ का मतलब है कि उसके बाहर करने को कुछ तुम्हें कुछ भी न बचे, तुम पूरा उसे कर लिए और बात खत्म हो गई। इसलिए वे कहते हैं कि तुम परमात्मा पर छोड़ दो फल। परमात्मा पर छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि कोई नियंता, कहीं “कंट्रोलर’ कोई बैठा है, उस पर तुम छोड़ दो, वह तुम्हारा हिसाब-किताब रखेगा।
परमात्मा पर छोड़ने का कुल इतना ही मतलब है कि तुम कृपा करो, तुम सिर्फ करो और समष्टि से उस करने की प्रतिध्वनि आती ही है। वह आ ही जाएगी। जैसे कि मैं इन पहाड़ों में जोर से चिल्लाऊं और कोई मुझसे कहे कि तुम चिल्लाओ भर, प्रतिध्वनि की चिंता मत करो, पहाड़ प्रतिध्वनि करते ही हैं। तुम पहाड़ों पर छोड़ दो प्रतिध्वनि की बात। तुम नाहक चिंतित मत होओ, क्योंकि तुम्हारी चिंता तुम्हें ठीक से ध्वनि भी न करने देगी और फिर हो सकता है प्रतिध्वनि भी न हो पाए, क्योंकि प्रतिध्वनि होने के लिए ध्वनि तो होनी चाहिए।
फलाकांक्षा कर्म को ही नहीं करने देती। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक ही जाते हैं, क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। जिनकी आंखें भविष्य पर गड़ी हैं भविष्य पर, कल पर, फल पर, तो काम तो बेमानी हो जाता है। किसी तरह हम करते हैं। नजर लगी होती है आगे, ध्यान लगा होता है आगे–और जहां ध्यान है, वहीं हम हैं। और अगर ध्यान वर्तमान क्षण पर नहीं है, तो गैर-ध्यान में, “इनअटेंटिविली’ जो होता है, उस होने में बहुत गहराई नहीं होती, उस होने में पूर्णता नहीं होती, उस होने में आनंद नहीं होता है।