भाईजान सुनो! चावल नहीं है घर में,
भूखा है मेरा बच्चा दो दिनों से।
मिल जाएगी बड़ी राहत हमें,
आपकी छोटी सी मदद से।
स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठी,
वह यही कह रही थी।
उसे सुनते हुए लोग आगे बढ़ते थे,
कुछ लोग मुड़कर देख लिया करते।
कइयों ने जेबें टटोली, पर रुके नहीं,
चेहरे पर दया के भाव दिखे चंद लोगों के।
उसकी फरियाद उन कानों तक भी गई,
जो उसके पास बढ़कर मदद के लिए पहुंचे।
अक्सर यही दृश्य होता है
गलियों, सड़कों और बाजारों में।
मदद की गुहार तो लगती है,
मददगार कम ही दिखते हैं।
कोई इन फरियादों को नजरअंदाज करता,
बहुतों को लुट जाने का डर है लगता।
मांगना किसी से कोई भी नहीं चाहता,
बस, पेट की भूख जमीर मार देती है।
मजबूरियों से है हर कोई लड़ता,
बस, परिस्थितियाँ कमजोर कर देती हैं।
मनमानी है करना हर कोई चाहता,
बस, जिम्मेदारियाँ रोक लेती हैं।
ऐसा नहीं कि हम मदद नहीं करते,
स्वार्थवश समृद्धों को उपहार भी देते।
अपनों से भावुकता में नुकसान भी सहते,
किंतु, ऐसे लोगों की छोटी सी मदद से कतराते।
सच तो यह भी है, दीन दुखियों को देख
कभी-कभी राह ही बदल लेते।
बदले हुए अपने स्वभाव को बदलना
समाज के हर इंसान को आवश्यक है।
भीख मांगना है एक बीमारी
इसका इलाज करना भी जरूरी है।
ज़रूरतमंदों की समाज द्वारा की गई मदद
उन्हें स्वावलंबी बना इस बीमारी से बचाती है।