सृष्टि हो जाये सुरभिमय इसलिए
कंटकों में फूल मुस्काता रहा।
जल रही थी हर दिशा अंगार बन,
आग में शिर से नहाई थी पवन;
खाक-सी खामोश लेटी थी धरा,
अजगरों को छोड़ देता था गगन;
नाश में मधुमास लाने को मगर,
कंटकों में फूल मुस्काता रहा।
आँधियाँ आयीं पहाड़ उछालती,
बदलियाँ छायीं समुद्र संभालतीं;
चाँद, सूरज, तारकों के शव उठा,
बिजलियाँ टूटी चिताएँ बालतीं;
पर सभी ही आफतों पर मुस्करा-
कंटकों में फूल मुस्काता रहा।
चाँद को खोकर हँसा है कब गगन;
सूर्य से बिछड़ी कहाँ थिरकी किरन!
तोड़ आकर्षण कभी एकाकिनी
है न चल सकती धरा भी एक क्षण,
पर अकेला, सब तरह बिछुड़ा हुआ-
कंटकों में फूल मुस्काता रहा।
हो धरा मुखरित, दिशा हर गा उठे,
सृष्टि में मधुमास फिर लहरा उठे;
हँस उठी सूनी सजल आंखे सभी
मर्त्य मिट्टी से अमृत शरमा उठे,
सृष्टि हो जाए सुरभिमय इसलिए
कंटकों में फूल मुस्काता रहा। ......नीरज जी