संजीव जैन's Album: Wall Photos

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आजादी के आंदोलन की प्रथम दीपशिखा झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई का आज बलिदान दिवस है। आज ही के दिन यानी 18 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। उनकी बहादुरी के किस्सों की तारीफ उनसे लड़ने वाले अंग्रेजों ने खुद की थी। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की नायिका रानी लक्ष्‍मीबाई की वीरता और साहस को शायद ही कभी कोई भुला पाए।

आजादी की लड़ाई की पहली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का जन्म वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम मोरेपन्त था और माता भागीरथी बाई थीं। बचपन में नाम मणिकर्णिका था, प्यार से सब मनु बुलाते थे। 4 साल की उम्र में मनु पिता के साथ बिठूर चली आयीं। पिता बिठूर के पेशवा के यहां रहते थे। मनु भी साथ रहती थीं। बचपन नाना साहब के साथ बीता। नाना उन्हें अपनी बहन मानते थे और प्यार से उन्हें छबीली बुलाते थे। नाना के साथ-साथ मनु घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्ध कौशल सीखने लगीं। मनु जब 14 साल की थीं, उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हो गया। विवाह के बाद महराज गंगाधर राव ने उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा। 1851 में लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन महज 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों से अपने राज्य को बचाने के लिए गंगाधर राव ने एक बच्चे को गोद लिया। बच्चे का नाम दामोदर राव रखा गया। लेकिन गंगाधर राव बीमार रहने लगे और कुछ ही दिनों में उनकी भी मृत्यु हो गई। अंग्रेजों से लोहा लेते हुएलक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गई वो नहीं चाहती थीं कि उनके मरने के बाद उनका शरीर अंग्रेज छू पाएं। वहीं पास में एक साधु की कुटिया थी। साधु उन्हें उठा कर अपने कुटिया तक ले आए। लक्ष्मीबाई ने साधु से विनती की कि उन्हें तुरंत जला दिया जाए और इस तरह 18 जून 1858 को ग्वालियर में रानी वीरगति को प्राप्त हो गईं।

भिण्ड से कालपी, अमायन, मिहोना, लहार और कौंच तक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति के गढ़ रहे। लक्ष्मीबाई और सरदार तात्याटोपे का न केवल साथ दिया, बल्कि उनकी रक्षा भी की।


मंदिरों से जुड़े साधुओं और किसानों का योगदान रहा। रानी शहीद हुईं तो बिना मुकदमा चलाए सैंकड़ों युवकों को फांसी पर लटका दिया गया। झांसी और ग्वालियर में गदर का दमन कर रहे ब्रिटिश सेनापति जनरल ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई की शहादत पर लिखा था, विद्रोहियों में झांसी की रानी श्रेष्ठ और सबसे बहादुर थीं।

लक्ष्मीबाई को बचाने 370 साधु शहीद 

मुरार में उनकी सेना ब्रिटिश कंपनी से हार गई, तब वे ग्वालियर किले पर थीं। सूचना मिली तो अंगरक्षकों और पठान सैनिकों के साथ उरवाई गेट से निकलीं। एक मील दूर रामबाग में जनरल ह्यूरोज की सेना से मु_ीभर सैनिकों के साथ भिड़ गईं। पठान सैनिक शहीद हो गए। आगे बढ़ते हुए वे घायल हो गईं। अचानक सैंकड़ों साधु उनके ओर से ब्रिटिश सैनिकों से भिड़ गए। 370 साधु लड़ते हुए शहीद हो गए। 


इसके बाद साधुओं का एक दल घायल महारानी को गंगादास की शाला (जहां आज वीरांगना का शहीद स्मारक है) ले गए। वहीं, महारानी ने प्राण त्याग दिए। इसके बाद साधुओं ने झोपड़ी में रानी का अंतिम संस्कार किया। रानी नहीं चाहती थीं कि अंग्रेज उनके शरीर को हाथ लगा पाएं। तब से यह समाधि स्थल उनकी चिर स्मृति का केंद्र बन गया।

महारानी के आयुधों की प्रदर्शनी

रानी लक्ष्मीबाई की समाधि स्थल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई बलिदान मेले का आयोजन किया जाता है। मेले में महारानी से जुड़े उन हथियारों की प्रदर्शनी लगाई जाती है जिनका प्रयोग वे युद्धाभ्यास एवां युद्ध मैदान में करती थीं। ऐसे 28 हथियार संग्रहालय में हैं। इन्हें सिर्फ बलिदान मेले पर समाधि स्थल पर लाया जाता है।