क्षमावणी पर्व यों तो जैनों में ही माना जाता है लेकिन जैन हो अथवा अजैन, सभी कषायों के वश में हैं। न केवल मनुष्य, अपितु तिर्यंच (पशुपक्षी) भी कषायों से अछूते नहीं हैं। कषाय अर्थात् राग-द्वेषमोह। जिनकी अभिव्यक्ति क्रोध मान माया लोभ हास्य, भय आदि के रूप में निरन्तर हो रही है। इन कषायों के वश होकर जाने अनजाने, मन से, वचन से, काया से, हम सभी परस्पर एक दूसरे के मानसिक अथवा शारीरिक दुखों का कारण बनते रहते हैं। अतः क्षमा माँगना व करना सिर्फ जैनों का नहीं, जीव मात्र का अधिकार है।
किन्तु यों ही हर किसी से क्षमा क्षमा बोलते रहने का नाम क्षमा पर्व नहीं है। पर्व का अर्थ है पवित्रता। रागादि दोषों से आच्छादित आत्मा को तब तक क्षमा नहीं हो सकती, जब तक उसे रागादि अपने दोष न लगने लगें। इस अपराधबोध अर्थात् आत्मज्ञान का होना ही उत्तम क्षमा है, जिसके होने पर करुणा से भरा जीव समस्त जगत को अपने समान जीव मात्र देखता है तो उसके मन में किसी के प्रति राग द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते, यह वीतराग साम्यभाव ही उसकी जगत के प्रति उत्तम क्षमा है। वचन से क्षमा हो अथवा न हो, उसके तो निरन्तर क्षमा वर्तती है।
क्षमावणी पर्व हमारे मिथ्या अहंकार को नष्ट करता है और भविष्य में हम गलतियाँ न करें, इसका विवेक भी देता है और मानसिक शक्ति भी बढ़ाता है।
ऐसे ही अपराधबोध से आज मेरा भी हृदय भीगा है।
परकर्तृत्व के मिथ्या अहंकार से....यदि मैंने किसी को नीचा दिखाया हो...मिथ्या क्रोध से.... यदि किसी को दुःख पहुँचाया हो... मेरे झूठ से किसी का कोमल हृदय पीड़ित हुआ हो अथवा किसी प्रकार की लौकिक क्षति पहुँची हो... लोभ व ईर्ष्यावश मैंने किसी का बनता कार्य बिगाड़ा हो... समर्थ होकर भी अहंकारवश किसी को "ना" बोला हो... माया से किसी की सेवा में, दान में, बाधा पहुँचाई हो... प्रमादवश मैंने किसी को निराश किया हो... कटु शब्दों से किसी के हृदय को आघात पहुँचाया हो... जाने अनजाने में यदि मैं किसी के कष्ट का कारण बनी हूँ...
तो मैं मस्तक झुकाकर, हाथ जोड़कर, सहृदयता से...आप सभी से क्षमाप्रार्थी हूँ..