" वसुधैव कुटुम्बकम "
अब मुखौटों से बना विश्व का जनतंत्र है
हर शख्स है मैं से बना और एकता भी तंत्र है;
धड़कन ह्रदय का रिक्त है, हर एक चेहरा सख्त है
मृत्यु-शय्या पर पड़ा अब मनुज का धर्म है;
कौन सोचे सत्य का असत्य से जिह्वा बिकी
जिस धरा पर हम खड़े हैं उसी को विष से सींचते;
कब तक पियेगें शिव हलाहल
विश्व के इस पाप को?
कब तक सहेगा मातृ-भू पुत्र संताप को
अब मुखौटों से बना विश्व का जनतंत्र है।
हर शख्स है मैं से बना और एकता भी तंत्र है
चीखता यह पुत्र मैया कैसा ये तेरा भक्त है;
दानवता अट्टहास करती देवयानी मस्त है
मिटटी का तो घट दिया जो शिव चेतना से रिक्त है;
जल भरा है गंग का पर गंगोत्री विभक्त है,
रक्तरंजित है धरा और धराशाही हर व्यक्ति है।
माँ कृपा कर पुत्र पर सुविचार का तू दान दे
तीसरे शिव-द्वार पर शिव-पुत्र को ही मान दे;
अब मुखौटों से बना विश्व का जनतंत्र है
हर शख्स है मैं से बना और एकता भी तंत्र है।
माँ मनुज मजबूर है तभी तो तुझ से दूर है
माँ गर्भ में शिवराज है फिर क्यों ये सब काज है;
कुछ तो कर तू योजना ,शिव शंकर को बोल ना
हिमशिला का द्वार खोले हम खड़े है द्वार तेरे
नीलकंठम ध्यानमग्नम तेरी योजना पर ध्यान दे
शिवपुत्र को ही जन्म दे जो हो ह्रदय जनतंत्र का
वसुधा बने तेरी सुधा रस एक घर बनें जनतंत्र का।
वसुधैव कुटुम्बकम! वसुधैव कुटुम्बकम! वसुधैव कुटुम्बकम!