पंडित मटकानाथ ब्रह्मचारी को अपने आश्रम के लिए एक भैंस खरीदनी थी। वे गाय-भैंसों के बाजार में गए। एक भैंस उन्हें अच्छी लगी। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, मुख चमकीला, पूंछ लंबी, दांत सफेद, पैर सुडौल, चाल मस्त और सींग भी अत्यंत सुंदर थे। उसने अभी पहला ही बछड़ा जना था। दूध बीस किलो रोज देती थी। लेकिन कीमत भी उसकी कम न थी। पांच हजार से कम में उसे बेचने वाला तैयार न था। ब्रह्मचारी आगे बढ़ गया।
आगे चंदूलाल भी अपनी पवित्र, धार्मिक, मरियल, टूटी टांग व कड़ी पूंछ वाली भैंस बेचने के लिए खड़ा था। उसके दांत सड़े और सींग आड़े-तिरछे थे। शरीर बस हड्डियों का ढांचा था।
ब्रह्मचारी मटकानाथ ने आश्चर्य से पूछा, अरे चंदूलाल! तुम भी भैंस बेच रहे हो?
हां, खरीदना है क्या? चंदूलाल ने प्रश्न किया।
यह दूध कितना देती है?
दूध! अरे दूध तो इसने आज तक नहीं दिया!
और बछड़े कितनी बार जन चुकी है?
चंदूलाल ने बताया, मेरी भैंस ने आज तक एक भी बछड़ा नहीं जना, और न कभी जनेगी।
इसे कौन खरीदेगा भाई? पंडित मटकानाथ ब्रह्मचारी ने पूछा, इसकी कीमत कितनी रखी है?
बीस हजार से एक पैसा कम नहीं।
बाप रे बाप! होश-हवास में हो या पी रखी है चंदूलाल? इसकी कीमत इतनी ज्यादा क्यों है?
ज्यादा कहां है! चंदूलाल ने कहा, ब्रह्मचारी होकर भी ब्रह्मचर्य का अर्थ नहीं समझते? भैंस ब्रह्मचारी है, बाल-ब्रह्मचारी है। और चरित्र की ही कीमत है।
तुम्हारे साधु, तुम्हारे त्यागी, तुम्हारे महात्मा बस चंदूलाल की भैंस हैं। उनका चरित्र, उनका वैराग्य, उनके व्रत-उपवास, उनकी साधुता--सब झूठी है, सब ऊपर-ऊपर है, सब निर्वीर्य है, नपुंसक है, निष्क्रिय है; उससे कुछ सृजन कभी नहीं हुआ।