संजीव जैन's Album: Wall Photos

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चम्बल की बन्दूकें गाँधी के चरणों में...

हिन्दुस्तान के इतिहास में चम्बल घाटी को हमेशा कुख्यात ही माना जायेगा। उत्तर-प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश की सीमाओं से लगा ये बीहड़ इलाका आज भी दुर्दांत डाकुओं के आतंक से प्रभावित है। हम बात करेंगे आजादी के कुछ सालों बाद की घटनाओं का। पचास-साठ के दशक में चम्बल में डाकुओं का ही राज था। उस समय सड़क और दूरसंचार का अभाव था। पुलिस बल की भी संख्या कम ही थी, इसी का फायदा उठाकर डाकू गाँवों में घुस आते थे और जमकर डकैती करते थे। इनकी राह में रोड़ा बनने वालों को गोलियों से भून देते थे।
तीनों राज्यों की सरकारें परेशान थीं। सरकारें चाहतीं थीं कि डाकू आत्मसमर्पण कर दें पर डाकुओं को पुलिस और सरकार पर रत्ती भर भी भरोशा नहीं था। डाकू अपने आपको बागी मानते थे। उनका कहना था कि उन्हें पुलिस और दबंग जमींदारों ने सताया है इसलिए वह बगावत पर उतर आये हैं।
उसी दौरान संत विनोबा भावे अपना भूदान आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने आम लोगों, उन बागियों और सरकार का दर्द समझा।
संत विनोबा भावे ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उस समय के युवा गांधी विचारक एसएन सुब्बाराव जिनको आज देश के सभी युवा भाई जी के नाम से जानते हैं, के साथ मिलकर डाकुओं से मिलने की योजना बनायी।
कई दौर की वार्ता चली और इसमें इन लोगों को काफी सफलता भी मिली। बागियों को विश्वास में लिया गया। सरकार और पुलिस से नरमी बरतने को कहा गया।
2 अक्टूबर वर्ष 1969 महात्मा गांघी के जन्मशती के अवसर पर चम्बल के 654 डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया।
इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में अपनी स्वेच्छा से बागियों ने आत्मसमर्पण किया।
भाई जी एसएन सुब्बाराव ने मुरैना में आश्रम बनाया। वहां स्वरोजगार के लिए संसाधन उपलब्ध कराये गए। डाकू मलखान सिंह, डाकू मोहर सिंह, डाकू तहसीलदार सिंह, डाकू मान सिंह जैसे बागी भाई जी के सानिध्य में गृहस्थ जीवन बिताने लगे।