"दीप नहीं, दीप का प्रकाश मुझे चाहिए,
आँज मैं सकूँ जिसे हरेक आँख में अभय;
बाँट मैं सकूँ जिसे समस्त विश्व में सदय,
बाँध छुद्र धूल कर सके जिसे न क्रय, न क्षय;
दीप नहीं, दीप का प्रकाश मुझे चाहिए।।
जो बंधे न वृन्त से, न डाल से न पात से,
जो मुंदे न, जो छुपे न रात में प्रभात से;
जो थके न जो झुके न धूप-वारि-वात से,
फूल नहीं, फूल का सुवास मुझे चाहिए।
दीप नहीं, दीप का प्रकाश मुझे चाहिए।।
घूँट-घूँट पी सके घृणा-समुद्र जो अतल
बूँद-बूँद सोख ले सकल विषम-कलुष-गरल;
अश्रु-अश्रु बीन ले धरा बने सुखी सकल,
तृप्ति नहीं, चिर अतृप्त प्यास मुझे चाहिए।
दीप नहीं, दीप का प्रकाश मुझे चाहिए।।
घेर जो सके समग्र स्वर्ग, नर्क, भू, गगन
बाँध जो सके सकल करम-धरम जनम-मरण;
छू सके जिसे न देश-काल की गरम पवन,
मुक्ति नहीं, मुक्त प्रेम-पाश मुझे चाहिए;
दीप नहीं दीप का प्रकाश मुझे चाहिए।
देवता नहीं, मनुष्य बस मनुष्य बन रहे,
अर्चना न, वन्दना न, द्वेष-मुक्त मन रहे;
स्वर्ग नहीं, भूमि-भूमि के लिए शरण रहे,
अमृत नहीं, मर्त्य का विकास मुझे चाहिए।
दीप नहीं दीप का प्रकाश मुझे चाहिए।।" ......नीरज जी
जीवन की खुशियों की खातिर मिलकर चलें ले स्नेह प्रण दीपोत्सव को बना दें सार्थक हर दिल में दीप प्रज्ज्वलित कर।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें!