संजीव जैन's Album: Wall Photos

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"राष्ट्र ही महान है अथवा जाति?"

बार-बार रोती तावी की
लहरों से निज कंठ मिलाकर,
देवि ! तुझे, सच, रुला चुका हूँ
सूने में आँसू बरसा कर।

मिथिला में पाया न कहीं, तब
ढूँढ़ा बोधि-वृक्ष के नीचे,
गौतम का पाया न पता,
गंगा की लहरों ने दृग मीचे।

मैं निज प्रियदर्शन अतीत का
खोज रहा सब ओर नमूना,
सच है या मेरे दृग का भ्रम?
लगता विश्व मुझे यह सूना।

छीन-छीन जल-थल की थाती
संस्कृति ने निज रूप सजाया,
विस्मय है, तो भी न शान्ति का
दर्शन एक पलक को पाया।

जीवन का यति-साम्य नहीं क्यों
फूट सका जब तक तारों से
तृप्ति न क्यों जगती में आई
अब तक भी आविष्कारों से?

जो मंगल-उपकरण कहाते,
वे मनुजों के पाप हुए क्यों?
विस्मय है, विज्ञान बिचारे
के वर ही अभिशाप हुए क्यों?

घरनी चीख कराह रही है
दुर्वह शस्त्रों के भारों से,
सभ्य जगत को तृप्ति नहीं
अब भी युगव्यापी संहारों से।

गूँज रहीं संस्कृति-मंडप में
भीषण फणियों की फुफकारें,
गढ़ते ही भाई जाते हैं
भाई के वध-हित तलवारें।

शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का
आज रुधिर से लाल हुआ है,
किरिच-नोक पर अवलंबित
व्यापार, जगत बेहाल हुआ है।

सिर धुन-धुन सभ्यता-सुंदरी
रोती है बेबस निज रथ में,
"हाय ! दनुज किस ओर मुझे ले
खींच रहे शोणित के पथ में?"

दिक्‌-दिक्‌ में शस्त्रों की झनझन,
धन-पिशाच का भैरव-नर्त्तन,
दिशा-दिशा में कलुष-नीति,
हत्या, तृष्णा, पातक-आवर्त्तन!

दलित हुए निर्बल सबलों से
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र जन,
आह! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।

क्रांति-धात्रि कविते! जागे, उठ,
आडम्बर में आग लगा दे,
पतन, पाप, पाखंड जलें,
जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।

विद्युत की इस चकाचौंध में
देख, दीप की लौ रोती है।
अरी, हृदय को थाम, महल के
लिए झोंपड़ी बलि होती है।

देख, कलेजा फाड़ कृषक
दे रहे हृदय शोणित की धारें;
बनती ही उनपर जाती हैं
वैभव की ऊंची दीवारें।

धन-पिशाच के कृषक-मेध में
नाच रही पशुता मतवाली,
आगन्तुक पीते जाते हैं
दीनों के शोणित की प्याली।

लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग, आदि कवि की कल्याणी?
फूट-फूट तू कवि-कंठों से
बन व्यापक निज युग की वाणी।

बरस ज्योति बन गहन तिमिर में,
फूट मूक की बनकर भाषा,
चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन,
उमड़ गरीबी की बन आशा।

गूँज, शान्ति की सुकद साँस-सी
कलुष-पूर्ण युग-कोलाहल में,
बरस, सुधामय कनक-वृष्टि-सी
ताप-तप्त जग के मरुथल में।

खींच मधुर स्वर्गीय गीत से
जगती को जड़ता से ऊपर,
सुख की सरस कल्पना-सी तू
छा जाये कण-कण में भू पर।

क्या होगा अनुचर न वाष्प हो,
पड़े न विद्युत-दीप जलाना;
मैं न अहित मानूँगा, चाहे
मुझे न नभ के पन्थ चलाना।

जहाँ तृणों में तू हँसती हो,
बहती हो सरि में इठलाकर,
पर्व मनाती हो तरु-तरु पर
तू विहंग-स्वर में गा-गाकर।

कन्द, मूल, नीवार भोगकर,
सुलभ इंगुदी-तैल जलाकर,
जन-समाज सन्तुष्ट रहे
हिल-मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर।

धर्म-भिन्नता हो न, सभी जन
शैल-तटी में हिल-मिल जायें;
ऊषा के स्वर्णिम प्रकाश में
भावुक भक्ति-मुग्ध-मन गायें । ..... दिनकर जी

महाराष्ट्र की घटना में जो कुछ हुआ उससे सर्वप्रथम मुझे अपने जीवन काल में यह पता चला कि देश के स्वतन्त्र होने के बाद भी अंग्रेजों की विजय का शौर्य दिवस इस देश में मनाने वाले लोग भी इस राष्ट्र में है। भीमा नदी के किनारे स्थित वढू बुदरक गांव में औरंगजेब ने 11 मार्च, 1689 को छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र और तत्कालीन मराठा शासक संभाजी राजे भोसले और उनके साथी कवि कलश को निर्दयतापूर्वक मार दिया था। कहा जाता है कि औरंगजेब ने संभाजी राजे के शरीर के चार टुकड़े करके फेंक दिए थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसी गांव में रहनेवाले महार जाति के गोविंद गणपत गायकवाड़ ने मुगल बादशाह की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए संभाजी के क्षत-विक्षत शरीर को उठाकर जोड़ा और उनका अंतिम संस्कार किया। इसके फलस्वरूप मुगलों ने गोविंद गायकवाड़ की भी हत्या कर दी थी। गोविंद गायकवाड़ को सम्मान देने के लिए वढू बुदरक गांव में छत्रपति संभाजी राजे की समाधि के बगल में ही गोविंद की समाधि भी बनाई गई है। काश! कुछ लोग गोविन्द गायकवाड़ की शहादत को याद करते जो स्वयं महार जाति के थे। लेकिन एक जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की सेना में रहकर पेशवाओं से युद्ध करनेवाले 600 महार सैनिकों का शौर्य दिवस मनाना लोगों ने आवश्यक समझा परन्तु उस युद्ध से हुई हार अंग्रेजों के भारत वर्ष में स्थापित होने और उससे हुई राष्ट्रीय क्षति को हम भूल गए? क्या राष्ट्र से महान भी स्वहित हो गया; क्या राष्ट्रहित से ऊपर जाति है? एक तरफ राष्ट्र की आराधना के स्वर सुनता हूँ; तो दूसरी तरफ राष्ट्र के विरुद्ध किए गए युद्ध की विजय का शौर्य दिवस! क्या विडम्बना है!

जो यह भाव 'मैं और राष्ट्र एक ही है' लेकर राष्ट्र और समाज के साथ तन्मय होता है वही सच्चा राष्ट्र सेवक है। कुटुम्ब के लिए किया गया व्यय जैसे स्वार्थ-त्याग नहीं होता, वैसे ही राष्ट्ररूपी कुटुम्ब की सेवा में किया हुआ व्यय भी स्वार्थ-त्याग नहीं है। राष्ट्र के व्यय करना, कष्ट सहना तो प्रत्येक घटक का पवित्र कार्य है। भारत आज जिन समस्याओं से जूझ रहा है उसकी अधिकांश उत्पत्ति देश के स्वातंत्र्य संघर्ष से जुड़ी है और जिस पर कार्य करने की जिजीविषा नहीं दिखाई गई। यह कैसी विडम्बना है? सबकुछ है, फिर भी हम अनाथ हैं। राजनीति करने वालों ने सिर्फ राजनीति की और नीतियों से दूर रहे, इसलिए अनीति के निकट पहुँच गए। हुक्मरानों की नियति ठीक नहीं थी, इसलिए निर्माताओं ने भी साथ नहीं दिया। चाँद पर पानी ढूँढने का सामर्थ्य हमने पा लिया पर जीवित मनुष्यों के कंठ आज भी सूखे हैं।