तुम्हारी जिंदगी
जो मरुस्थल जैसी हो गयी है,
इसीलिए कि तुम जो भी कर रहे हो,
सब कर्तव्य है।
पिता है तो इनकी सेवा करनी है।
मां है, तो इनकी सेवा करनी है।
पत्नी है, तो अब क्या करो,
बांध लिया चक्कर
तो अब इसका कुछ न कुछ तो
करना ही पड़ेगा!
बच्चे हो गए,
तो अब इन्हें स्कूल तो
पढ़ाना ही पड़ेगा,
इनकी शादी भी करनी पड़ेगी।
सब “करना पड़ेगा’!
मगर अब रस तुम्हें
किसी बात में नहीं है।
तुम्हारा जीवन
अगर मरुस्थल हो जाए
तो आश्चर्य क्या!
यह प्रेमी का ढंग नहीं है।
प्रेमी का ढंग और है।
महाराष्ट्र में कथा है
विठोबा के मंदिर की,
कि भक्त अपनी मां के
पैर दाब रहा है
और रोज पुकारता है कृष्ण को।
और उस रात कृष्ण को
मौज आ गयी और वे आ गए।
और उन्होंने दरवाजा खटखटाया।
दरवाजा बंद नहीं था,
अटका ही था।
भक्त ने कहाः
भीतर आ जाओ, कौन है?
लेकिन जब कृष्ण आए
तो भक्त की पीठ उनकी तरफ,
वह अपनी मां के पैर दबा रहा था।
कृष्ण ने कहा :
मैं कृष्ण हूं,
तू रोज-रोज पुकारता है,
आ गया।
भक्त ने कहा :
अभी बेवक्त आए।
अभी मैं मां के पैर दाब रहा हूं।
फिर कभी आना।
यह अपूर्व श्रद्धा,
यह मां के पैर दाबने में भाव
मोह लिया कृष्ण को!
कृष्ण ने कहा :
तो मैं रुका जाता हूं,
तू पहले अपनी मां की सेवा कर ले।
तो उसने पास में रखी
एक ईंट सरका दी और कहा कि
इस पर बैठ जाओ,
तो कृष्ण उस ईंट पर खड़े रहे,
खड़े रहे।
इसलिए विठोबा के
मंदिर में जो मूर्ति है,
वह अब भी ईंट पर खड़ी है।
यह कर्तव्य तो नहीं था।
इसमें ऐसा प्रेम था कि
फिर मां के चरणों में जो प्रेम है,
उस प्रेम में
और परमात्मा के प्रेम में
कोई विरोध थोड़े ही रह जाता है।
वे एक ही हो गए।
जहां प्रेम है,
वहां समस्त प्रेम एक ही हो जाते हैं।
वे एक ही सरिता की तरंगें हैं।