"शैशव-दशा में देश प्रायः जिस समय सब व्याप्त थे,
नि:शेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की,
आचार की, व्यापार की, व्यवहार की, विज्ञानं की।
हाँ और ना भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमन्त्र बखानते।
जब थे दिगम्बर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्र को थे चूमते।
था गर्व नित्य निजत्व का पर दम्भ से हम दूर थे,
थे धर्म-भीरु परन्तु हम सब काल सच्चे शूर थे।
सब लोक-सुख हम भोगते थे बान्धवों के साथ में,
पर पारलौकिक सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में।
थे ज्यों समुन्नति के सुखद उत्तुंग श्रृंगों पर चढ़े,
त्यों ही विशुद्ध विनितता में हम सभी से थे बढ़े।
भव-सिन्धु तरने के लिए आत्मावलम्बी धीर ज्यों,
परमार्थ- साधन-हेतु थे आतुर परन्तु गम्भीर त्यों।
यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म से फल-कामना करना न हम थे जानते।
विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकान्त था,
'आत्मा अमर है, देह नश्वर' यह अटल सिद्धान्त था।
हम दूसरों के दुःख को थे दुःख अपना मानते,
हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते-
'जो ईश कर्ता है हमारा दूसरों का भी वही,
हैं कर्म भिन्न परन्तु सबमें तत्व-समता हो रही।" ... मैथिली शरण गुप्त जी
सहयोग, सामंजस्य, सद्भाव एवं समन्वय; यही तो आवश्यक है परस्पर सक्रियता का भाव निर्मित करने के लिए। भारत अपनी गरिमा-महिमा को पुनः प्राप्त कर तभी वंदनीय बन सकेगा, जब हम अपने-अपने स्तर पर इसके लिए कार्य करेंगे। लोगों के भरोसे की रक्षा के लिए दृष्टि में स्पष्टता, आचरण में सहजता, व्यवहार में उदारता, विरोधियों के प्रति भी सदाशयता, वाणी में प्रखरता, सामाजिक कार्यों में आर्थिक शुचिता, दायित्व के प्रति सजगता अति आवश्यक है। वृक्ष, नदी, तालाब, पत्थर यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के स्वरुप में ईश्वर का वास देखने वाला है हमारा समाज।
जिस समय नेता बहकावों की बर्छियाँ पैनी कर रहे हों, उनकी नीयत को परखना और जनता के समक्ष अपने उच्च आदर्शों को रखना हम सबका कार्य है। एक आदर्श समाज गतिशील होना चाहिए, एक हिस्से से दूसरे हिस्से में परिवर्तनों को ले जाने में परिपूर्ण होना चाहिए। यह कदापि नहीं हो सकता कि राजनीति समाज में ज़हर घोले और समाज सिर्फ मूक दर्शक बना रहे। स्वयं स्व. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी ने कहा था, "यथार्थ से मुंह मोड़ने वाली राजनीति न केवल निरर्थक है, अपितु भयावह भी।" अतः विद्वेषी-विषैली राजनीति को यह बताना होगा कि सामाजिक एकता का कफ़न लोकतन्त्र में राजनीति का साफा नहीं बन सकता। आइए हम समाज को शिक्षित, संगठित और एकात्म करने के लिए आंदोलन रत हों।