पुस्तकालय अर्थात "वह भवन जहाँ अध्ययन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया गया हो", भारत के गाँव में पुस्तकालय की बहुत आवश्यकता है, जिससे की सभी वर्ग के लोग शिक्षित हो कर अपने ज्ञान को बढ़ा सके । जरूरत है तो बस गाँव के लोगों को नए आयाम देने की । व्यक्ति के ज्ञान को विस्तार देने के लिए पुस्कालय बहुत ही उपयोगी माध्यम है । औसत वर्ग का व्यक्ति अपनी रुचि या जरूरत की महंगी सभी किताब नहीं खरीद पाता और पैसे के अभाव में वह ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह जाता है । परंतु पुस्कालय के माध्यम से सभी प्रकार की किताबें एवं उनके ज्ञान का आसानी से लाभ लिया जा सकता है ।
महान देशभक्त एवं विद्वान लाला लाजपत राय ने पुस्तकों के महत्व के संदर्भ में कहा था : "मैं पुस्तकों का नर्क में भी स्वागत करूँगा । इनमें वह शक्ति है जो नर्क को भी स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती है ।”
संस्कृत की एक सूक्ति के अनुसार : "काव्य शास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रयाकलहेन वा। ।” अर्थात् बुद्धिमान लोग अपना समय काव्य-शास्त्र अर्थात् पठन-पाठन में व्यतीत करते हैं वहीं मूर्ख लोगों का समय व्यसन, निद्रा अथवा कलह में बीतता है ।
प्रत्येक प्रगतिशील देश में जन पुस्तकालय निरंतर प्रगति कर रहे हैं और साक्षरता का प्रसार कर रहे हैं । वास्तव में लोक पुस्तकालय जनता के विश्वविद्यालय हैं, जो बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के उपयोग के लिए खुले रहते है ।
साथियों जिस प्रकार हम सभी मंदिर मस्जिद आदि के निर्माण में धर्म के पुनरुत्थान में पहल करते हैं ठीक उसी प्रकार शिक्षा को तबज्जो देते हुए हम सभी अपने सामाजिक दायित्व को समझते हुए अपने-अपने गाँव कस्बों में सार्वजनिक पुस्कालय का अपने स्तर से निर्माण करें एक बार पहल तो करें आप महसूस करेंगे आपका समाज प्रगति कर रहा है । नैतिकता पूरे समाज मे व्याप्त होगा । सौ कदम आगे बढ़ना है तो आइए एक कदम बढ़ाते हैं ।
दीपक बिना घर सूना
पुस्तकालय बिना गांव सूना।