जो लोग मज़दूरों के पलायन और श्रमिक ट्रेनों पर मोदी सरकार पर घटिया टिप्पणियाँ कर रहे हैं उन्हें याद दिला दूंँ :
1947 में भी पलायन हुआ था जो कोरोना महामारी की वजह से नहीं बल्कि एक आदमी के प्रधानमंत्री बनने की भूख की वजह से हुआ था। तब लाशों से भरी ट्रेनें आई थी और कोई नहीं भौंका था।
फिर 1 पलायन हुआ। कश्मीर से कश्मीरी हिन्दुओं का। पति के खून से सने हुए चावल खिलाए गए, बलात्कार कर कर के जब थक गए, शरीर को बीच में से चीरा गया था। तब कोई महामारी नहीं थी, तब कोई नहीं भौंका था।
यह श्रमिकों पर राजनीति करने वाले वही हैं जिन्होंने इन्हें उकसा भड़का कर पलायन करवाया है।
700-800 रुपये की टिकट पर सियासी खेल खेलने वालों, तुमनें तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा करने तक का समय नहीं दिया था पाकिस्तान और कश्मीर से भागने वालों को!
पीढ़ियां गल गई उनकी लेकिन ज़ख्म आज भी बाकी हैं। सिहर उठते हैं आज भी जब दादी नानी के बताए विभाजन के दर्दनाक किस्से सुनते हैं।