"छुटकी..बहू ,ज़रा एक गिलास पानी देना।"
"उफ..! "अब मेरे अकेले से नही होता। एक ही को नही पैदा किया,, सबको किया है। अब दो दो महीने सब लोग अपने साथ ले जायें, सेवा करें।" बड़बड़ाते हुये उसने पानी लाकर रख दिया।
"पापा जी..! "आप अब थोड़े,थोड़े दिन सबके साथ जाकर रहिये ! सबकी ड्यूटी है ,,अकेले हमारी नही।"
"ड्यूटी"...वो उसका मुंह देखते रह गए। यही सुनना बाकी रह गया था।
पांच पांच लड़कों के पिता हैं वो ! कितना अच्छा लगता था जब पोतों,पोतियों से घर भरा रहता था। सारा दिन चिल्लपों मची रहती थी।
पर कहते हैं ना कि जहां चार बर्तन होते हैं ,वहां खड़कते भी हैं ! पर यहां कुछ दिनों से इन बर्तनों से ज़्यादा ही आवाज़ें आने लगी थी।
एक दिन बर्तन ऐसे खड़के कि सब अलग अलग हो गये और वो कलेजे पर पत्थर रखकर इस अलगाव को देखते रहे, कुछ नही कर पाये।
चार बेटे अपने नये,नये आशियाने में चले गये।
छोटा बेटा पिता की सेवा करने के बहाने साथ ही रह गया। बाद में पता चला कि उसने बहुत पहले ही अपना घर ले लिया था,जो किराए पर चढ़ा हुआ है।
" क्या सोचा पापा जी..?" बहू ने फिर कुरेदा !
"हां , सोचा..!"
"तुम सही कह रही हो ! ये सिर्फ तुम्हारी ड्यूटी नही है! पर ये मेरा घर है और मैं किसी के पास रहने क्यों जाऊं?"
"ऐसा करो ..जैसे सब चले गयें हैं ..वैसे हीे तुम भी जा सकती हो।"
----- कल्पना मिश्रा