घनश्याम शर्मा 'राधेय'
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"धर्मो रक्षति रक्षितः"
अर्थात, धर्म की रक्षा करो, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। धर्म ही इस चराचर जगत और सभी जीवों के जीवन का मूल है। धर्म के बिना इस सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए, धर्मानुसार आचरण करें, सत्य का ग्रहण करें, और असत्य का त्याग करें।
धर्म सनातन है, समय के साथ इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इसे न हीं उत्पन्न किया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है यह तो ईश्वर प्रदत होता है। जो सृष्टि के कल्याण के लिए ईश्वर के उपदेशात्मक रूप में वेदों के माध्यम से उत्पन्न होता है इसलिए इसे वैदिक सनातन धर्म कहा जाता है, जो सृष्टि के आरंभ से ही अस्तित्व में है और सदा ही रहेगा।
4. धर्म क्या है
आजकल संप्रदायों और विभिन्न मतमतांतरों ने धर्म शब्द का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक झगड़े हो रहे हैं। यह प्रश्न उठता है कि धर्म वास्तव में है क्या? कई लोग धर्म को रिलीजन' या 'मजहब के रूप में देखते हैं लेकिन ये शब्द धर्म के वास्तविक अर्थ से बिल्कुल भिन्न हैं।
रित्तीजन या मजहब किसी विशेष मत, पंथ या संप्रदाय के अनुयायियों के लिए बनाए गए नियमों का समूह है। यह एक विचारधारा है, जो केवल उस विशेष पंथ संप्रदाय के अनुयायियों के कल्याण की बात करती है। इसके विपरीत, धर्म का अर्थ संप्रदाय या रिलीजन से नहीं है संपूर्ण सृष्टि से हैं। वैदिक सनातन धर्म संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए निर्धारित सर्वोत्तम नियमों का नाम है, जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है और किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।
धर्म का शाब्दिक अर्थ
धर्म शब्द "धू" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "धारण करना। "धारयति इति धर्मः" अर्थात, जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। अब यह विचार करना चाहिए कि धारण करने योग्य क्या है- श्रेष्ठ या तुच्छ? निश्चित रूप से श्रेष्ठ ही धारण करने योग्य है। इसीलिए, श्रेष्ठ आचार-विचार, श्रेष्ठ कर्तव्य और कर्म ही मनुष्य के लिए धारण करने योग्य होते हैं।
जिस आचरण से मनुष्य को आत्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति प्राप्त होती है, और जिन गुणों को धारण करने से व्यवहारिक सुख एवं मोक्ष की सिद्धि होती है, वही आचरण या कर्तव्य धर्म कहलाता है। वेदों में मनुष्य के लिए जो कर्तव्यों का विधान किया गया है, वही सच्चा धर्म है और उसके विपरीत अधर्म है।
धर्म केवल मनुष्य का नहीं बल्कि समस्त सत्रि के कण-कण का है। सुष्टि के प्रत्येक वस्तु का है अपना एक धर्म होता है. ईश्वर ने सष्टि के प्रत्येक पदार्थ को जिस-जिस उद्देश्य से बनाया है अगर वहां उन गुणों को धारण करता है वही उसका धर्म बन जाता है जो ईश्वर द्वारा उसे प्रदान
किया गया है।
उदाहरण के लिए:
अग्नि का धर्म उसकी उष्णता है।
जल का धर्म उसकी शीतलता है।
सूर्य का धर्म है प्रकाश देना।
वायु का धर्म उसकी चंचलता, शुष्कता है।
अब सूर्य ने प्रकाश को धारण किया है तो सूर्य का धर्म प्रकाश देना है, अब अगर वह प्रकाश देना बंद कर दे, तो वह अधर्मी कहलाएगा। उसी प्रकार, मनुष्य को सदाचार, सत्य भाषण परोपकार, अहिंसा आदि गुणों को धारण करने के लिए बनाया गया है। अगर वह इन गुणों को छोड़कर विपरीत गुणों को धारण करता है, तो वह अधर्मी माना जाएगा। अतः श्रेष्ठ गुणों को धारण करना ही मनुष्य मात्र का एकमात्र धर्म है। जिसे मानव धर्म कहा जाता है।
इस प्रकार, ईश्वर ने सृष्टि के प्रत्येक जीव प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक विशिष्ट कर्म निर्धारित किया है। जब कोई जीव अपने निर्धारित कर्म का पालन करता है, तो वह धर्माचरण कहलाता है, और अगर वह इसके विपरीत करता है, तो उसे अधर्माचरण कहा जाता है। इसी के अनुसार जीवों को उनके कर्मों का फल भी मिलता है।
Deepak Verma
सरकार चाहे आज ही लॉकडाउन खोल दे,
लेकिन आप सावधान रहिये,
क्योंकि
आप सरकार कि नजर में मात्र एक संख्या हैं...
लेकिन अपने परिवार के लिये आप पूरी दुनिया हैं !!