संजीव जैन
"अच्छी थी, पगडंडी अपनी, सड़कों पर तो, जाम बहुत है!!
फुर्र हो गई फुर्सत, अब तो, सबके पास, काम बहुत है!!
नही बचे, कोई सम्बन्धी, अकड़,ऐंठ,अहसान बहुत है!!
सुविधाओं का ढेर लगा है यार, पर इंसान परेशान बहुत है!!\ud83d\udc9e
" गाँव "
स्वामी शिवाश्रम
पिता करे पुत्र भुगते
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मैं राजनैतिक विषय पर टिप्पणी तो करना नहीं चाहता हूँ, तथापि कभी कभी लोगों के एक ही विषय पर बारंबार लिखना मेरे कुछ बोलने को बाध्य करता है, इसी कारण यह लिख रहा हूँ —
आज प्रत्येक सवर्ण आरक्षण को लेकर परेशान है क्यों ? यह आरक्षण का नाग किसने और क्यों पाला ? इस पर कोई कह सकता है कि कांग्रेस ने सत्ता के लिए पाला । तब मेरा प्रश्न होगा कि कांग्रेस ने क्यों पाला वह तो एक समूह है और उस समूह में आजादी के बाद जब संविधान पारित हुआ तब ७०% से अधिक सवर्ण कहे जाने वाले लोग थे और उन सवर्णों में भी सबसे अधिक संख्या संभवतः ब्राह्मणों की थी ।
उस समय यदि संसद में सवर्णों ने भविष्य को देखा होता कि यह उनकी अपनी ही सन्तानों की बेरोजगारी, भुखमरी और आत्महत्या का कारण बनेगी तो यह स्थिति बिल्कुल न होती । यदि सांसदों ने इसका विरोध किया होता तो न तो नेहरू कुछ कर पाते और न ही शेष ३०% सांसद कुछ कर पाते । यदि आरक्षण जातिगत के स्थान पर मात्र आर्थिक आधार पर होता तो आज किसी को भी आत्महत्या न करनी पड़ती और आरक्षण जिन्हें दिया गया है वे लोग ही उस समय की परिस्थिति के अनुसार सर्वाधिक लाभान्वित भी होते । किन्तु सत्ता की भूख चाहे जो करे । आज भी आरक्षण का समर्थन अधिकांश सवर्ण ही कर रहे हैं, जो विपक्ष में बैठे हैं, इनकी संख्या आज भी अधिक है ।
अब जो पुरखों ने किया वह तो भुगतना ही पड़ेगा, फिर रोना क्यों ? अदालतें भला किसी सरकार के विरुद्ध कैसे जा सकती हैं ? भला कोई भी सरकार आरक्षण को समाप्त करने की सोच भी कैसे सकती है ? क्योंकि यह सोचते ही सत्ता चली जायेगी । और यदि बिल पास भी हो जाये तो लागू नहीं हो सकता है, सुप्रीम कोर्ट बाधा करेगा और यदि वहां से भी पास हो जाये तो खून खराबा,देश बँटवारा तक स्थिति बन जायेगी आरक्षण उसके बाद भी समाप्त होने वाला नहीं है अतः रोना क्यों ? इसी को कहते हैं जैसी करनी वैसी भरनी । पिता करे पुत्र भुगते । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम