Rajeev Chikara
गठबंधन का नाम इंडिया और लड़ाई लड़ेंगे इंडियन स्टेट्स से। लगता है तपस्या से मन स्थिर हुआ नहीं हुआ या फिर अभी तपस्या का ताप दिमाग में है और यहां जबरिया बुला लिए गए तपस्या अधूरी छोड़कर ।
Amrit Pal
सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति जी द्वारा भेजे 14 प्रश्नों पर चल रही कार्रवाई में कल बहुत कुछ रोचक देखने सुनने को मिला जो सुप्रीम कोर्ट का भी भविष्य निर्धारित कर सकता है।
तमिलनाडु की तरफ़ से अभिषेक मनु सिंघवी ने राज्य सरकार का पक्ष रखा। दरअसल पूरा मामला तब शुरू हुआ जब तमिलनाडु विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास भेजा दिया और राष्ट्रपति ने अपने विचार के लिए इसे लंबे समय तक होल्ड कर लिया।
तमिलनाडु सरकार ने इस देरी के ख़िलाफ़ आर्टिकल 32 का हवाला देकर सीधे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और दो जजों की बेंच जिसमे बार बार चर्चा में रहने वाले जस्टिस पारडीवाला भी शामिल थे, ने न केवल सुनवाई कर डाली बल्कि राष्ट्रपति को आदेश दे दिया कि वह कोई भी बिल अपने पास अपनी इच्छा से नहीं रोक सकते और यदि ऐसी स्थिति बनती है तो वह कानून तीन महीने के बाद अपने आप लागू हो जाएगा।
इस पूरे निर्णय के कई सारे लूपहोल हैं जिसके कारण कल सुप्रीम कोर्ट में कुछ रोचक चर्चा हुई और कई प्रश्नों का जबाब अभिषेक मनु नहीं दे पाये।
1- आर्टिकल 32 का उपयोग कोई भी “नागरिक”, सरकार अथवा सरकार के किसी अंश द्वारा किये गए उन कार्यों के ख़िलाफ़ कर सकता है जहाँ उसके मूल अधिकारों का हनन हो। लेकिन क्या इस आर्टिकल का प्रयोग एक सरकार दूसरे सरकार के ख़िलाफ़ कर सकती हैं? संविधान को यदि ध्यान से पढ़ा जाएगा तो यह आर्टिकल “सरकार” से “व्यक्ति” को बचाने के लिए है, ऐसे में यह याचिका सुनी ही क्यों गई?
2- सुप्रीम कोर्ट को यदि संविधान के संबंध में कोई व्याख्या करनी होती है तो संवैधानिक पीठ बनाई जाती है जो कम से कम पाँच जजों की होती है, फिर दो जजों की बेंच ने कैसे संविधान को बदलने का आदेश दे दिया और “जितनी जल्दी संभव हो उतनी जल्दी” की जगह “तीन महीना” की समय सीमा लिख दिया? यदि यह निर्णय लागू हुआ तो यह कोर्ट द्वारा संविधान का पुनर्लेखन जैसा होगा।
3- यदि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राष्ट्रपति और राज्यपाल मानने से इनकार कर दें, तो ऐसी स्थिति में कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट का मामला होगा, लेकिन संविधान के अनुसार राज्यपाल और राष्ट्रपति अपने किसी भी निर्णय के प्रति कोर्ट के सामने प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। तो फिर इस कंटेम्प्ट का क्या होगा?
4- यदि दो जजों की बेंच संविधान का पुनर्लेखन करेंगी तो फिर संसद का क्या काम बचेगा? फिर देश में लोकतंत्र कहा जाएगा?
5- यदि बिना राष्ट्रपति और राज्यपाल के हस्ताक्षर के देश में नियम क़ानून बनने लगेंगे, तो जो भारत को मूलतः एक राष्ट्र माना गया है और जिस कारण राष्ट्र की एकता और अखंडता सुरक्षित रहती है, उस व्यवस्था का क्या होगा?
राज्य में अलगाववाद के हावी होने पर कोई ऐसी पॉपुलर गवर्नमेंट राज्य में चुनी जा सकती है जिसका निर्णय राष्ट्र के ख़िलाफ़ जाने लगे और राज्यपाल राष्ट्रपति मुकदर्शक रहें तो फिर राष्ट्र की अखण्डता का क्या होगा?
6- यदि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही तीन महीने में राज्य कोई ऐसा क़ानून बनाये जो बाद में सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हो जाये तो भला सुप्रीम कोर्ट ख़ुद के ख़िलाफ़ ख़ुद को कैसे जज कर सकती है?
यह सब ऐसे प्रश्न हैं जो यह स्पष्ट कर रहे हैं कि विभिन्न मामलों में चर्चित रहे जज पारडीवाला के साथ जस्टिस महादेवन ने जो निर्णय दिया है, वह संविधान में जो पॉवर बैलेंस है उसको बड़ा झटका है।
अब यदि पाँच जजों की बेंच इस मामले पर यह कहती है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को टाइम लाइन नहीं दिया जा सकता तो प्रश्न यह खड़ा होगा कि क्या जस्टिस पारदीवाला के बेंच का निर्णय गलत था? और यदि सुप्रीम कोर्ट ही ग़लत निर्णय दे रहा है तो तो जो यह निर्णय हुआ है उसका क्या होगा?
एक बात और याद रखना है कि जस्टिस पारदीवाला की जैसी सीनियरटी है उसके हिसाब से लंबे समय तक वह चीफ जस्टिस रहने वाले हैं। इधर थोड़े ही समय में उनके अगुवाई में एक के बाद एक ऐसे निर्णय हुए हैं जो लगातार सुप्रीम कोर्ट के लिए परेशानी का कारण बने हैं। क्या ऐसे व्यक्ति को केवल वरिष्ठता के आधार पर चीफ जस्टिस बनाना उचित होगा?
क्या आने वाला समय जुडिसियल एक्टिविज्म से आगे बढ़कर जुडिसियल टेररिज्म का तो नहीं है? ऐसी स्थिति क्या भारत जैसे विशाल देश में अस्थिरता को नहीं बढ़ाएगा??