jareen jj
अब भी कहोगे साथियों कि
इनबुक को फेसबुक जैसा होना चाहिए
Priyadarshi Tiwari
सभी के असली चेहरे न दिखा ऐ जिंदगी
कुछ लोगों कि हम इज्जत करते है
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जमाखोरी, बिचौलिए और थोड़ा #BasicEconomics
एक वस्तु और एक इकोनॉमिक प्रोडक्ट में अंतर होता है. एक ही वस्तु जब अपना रूप बदल लेती है तो वह एक नया इकोनॉमिक प्रोडक्ट बन जाती है, क्योंकि उससे उसकी उपयोगिता और उसकी माँग बदल जाती है. आलू, और आलू का चिप्स अलग अलग इकोनॉमिक प्रोडक्ट्स हैं. दूध और उससे जमाया दही अलग अलग प्रोडक्ट्स हैं.
पर किसी नए इकोनॉमिक प्रोडक्ट को अपना रूप बदलना जरूरी नहीं है. एक वस्तु जब स्थान और समय बदलती है तो वह एक नया इकोनॉमिक प्रोडक्ट बन जाती है. समुन्दर के किनारे पड़ी रेत कोई इकोनॉमिक प्रोडक्ट नहीं है, पर वही रेत कंस्ट्रक्शन साइट पर पहुँच के एक इकोनॉमिक प्रोडक्ट बन जाती है क्योंकि एक जगह उसकी सप्लाई असीमित थी, दूसरी जगह पहुँच कर सीमित हो जाती है. मालदा आम जब कोहिमा पहुँचता है तो वह एक दूसरा इकोनॉमिक प्रोडक्ट हो जाता है क्योंकि उसमें उसे मालदा से कोहिमा पहुँचाने का खर्च भी जुड़ जाता है. बर्फ साइबेरिया में वही नहीं होता जो सहारा में होता है. किसान की खेत में गड़ा आलू, कोल्ड स्टोरेज में पड़ा आलू, और समोसे के साथ तला आलू अलग अलग इकोनॉमिक प्रोडक्ट्स हैं, आप इन तीनों का एक ही मूल्य नहीं लगा पाएँगे.
वैसे ही एक चीज जब समय बदलती है तो उसकी उपयोगिता और माँग और आपूर्ति भी बदलती है. बर्फ दिसंबर में वही नहीं होता जो मई जून में होता है. आलू दिसंबर जनवरी में वही नहीं होता जो जुलाई अगस्त में होता है. आपके लिए ही 1000 रुपये की कीमत पहली तारीख को वही नहीं होती जो कभी कभी 30 तारीख को होती है.
बिचौलिया कौन होता है?
बिचौलिया वह होता है जो किसी सामान का स्थान परिवर्तन करता है. जब गेहूँ को खेत से उठाकर मंडी पहुँचा दिया जाता है तो उसमें स्थान परिवर्तन की वजह से वैल्यू एडिशन हो जाता है, क्योंकि मंडी वह स्थान है जहाँ उसके उपभोक्ता पहुँचते हैं. उत्पादन से उपभोग की प्रक्रिया को पूरा करने में यह बिचौलिया एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जो उत्पादक को उपभोक्ता से जोड़ता है. पॉवर प्लांट में उत्पादित बिजली को आपके टेलीविजन तक पहुँचाने वाला तार यह बिचौलिया है. इसीलिए इतनी घृणा का पात्र होने के बावजूद वह एक्सिस्ट करता है, क्योंकि वह उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के लिए उपयोगी है.
वहीं एक जमाखोर कौन है? एक जमाखोर उस वस्तु का समय परिवर्तित कराता है. वह उसकी आपूर्ति को दूसरे काल में स्थानांतरित करता है. उसकी इस गतिविधि से उसे कोई फायदा नहीं होता अगर इसका समाज के लिए कोई मूल्य नहीं होता. आलू की फसल जाड़े में आती है, और पूरे साल मिलती है तो इसी जमाखोर की वजह से जो उसे कोल्डस्टोरेज में रखकर उस आलू की जीवन अवधि बढ़ा देता है और उसमें वैल्यू एडिशन कर देता है. अगर वह एक समान को इस माह के बजाय तीन महीने बाद उपलब्ध कराने के पैसे कमाता है तो यह इसीलिए संभव हो सकता है कि तीन महीने बाद आपके लिए उस वस्तु की उपयोगिता अधिक होगी और इस बढ़ी हुई उपयोगिता को आप अधिक मूल्य चुकाने की तत्परता से व्यक्त करते हो. एक जमाखोर, सिर्फ जमाखोरी के बदले में कुछ नहीं पाता, उसे लाभ तभी होता है जब वह आखिर में उस वस्तु को आपको बेचता है. प्रश्न है कि वह इसे कब बेचेगा? जब भी बेचेगा, उसे इस प्रश्न का सामना करना ही पड़ेगा कि उपभोक्ता उस वस्तु का कितना मूल्य चुकाने को तैयार है. वह चाहे तो भी अनिश्चितकाल तक उस वस्तु की जमाखोरी करने का उसे कोई लाभ नहीं है. लाभ उसे बेचने पर ही है.
लोग बिचौलियों और जमाखोरों को अनैतिकता से जोड़ते हैं. इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता, वे अपनी नैतिकता की वजह से नहीं, अपनी उपयोगिता की वजह से सर्वाइव करते हैं.
फिर भी ऐसे अवसर आते हैं जब किसी किसी वस्तु की आपूर्ति अप्रत्याशित और कृत्रिम रूप से बाधित हो जाती है, वह बाजार से गायब हो जाती है और उसका मूल्य बहुत बढ़ जाता है. अगर इसके आर्थिक कारण होते या यह आर्थिक रूप से लाभकारी होता तो ऐसा रोज रोज होता. पर रूटीन में ऐसा करना व्यापारी के लिए कॉस्ट इफेक्टिव नहीं होता, क्योंकि जब वह माल को दबा कर उसकी आपूर्ति को नियंत्रित करता है तो उसकी बिक्री भी बाधित होती है, और वह यह करना एफोर्ड नहीं कर सकता. उसका लाभ अधिक समान बेचने में है.
आप यह सोचेंगे कि ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि यह गैरकानूनी है तो फिर आप भोले हैं. क्योंकि एक व्यापारी का लाभ अगर पर्याप्त बड़ा हो तो कानून जैसी मामूली सी अड़चन को वह आसानी से पार कर जाएगा यह आप अच्छी तरह जानते हैं.
फिर भी ऐसा कभी कभी होता है. पिछले जितने भी उदाहरण मुझे दिखाई पड़ते हैं, वे सभी किसी ना किसी चुनाव के पहले आये हैं और इसके कारण आर्थिक से अधिक राजनीतिक ही दिखाई पड़ते हैं. साथ ही यह तभी हो पाता है जब उसके साथ मीडिया की जुगलबंदी भी हो. मीडिया कमी की अफवाह फैलाती है, और उसके बाद बढ़ी हुई कीमतों का शोर मचा कर अपना वांछित राजनीतिक लाभ प्राप्त करती है. इस मामले में अगर कोई आपराधिक गतिविधि हो रही है तो वह आर्थिक क्षेत्र में नहीं होकर संचार और संवाद के सामाजिक क्षेत्र में हो रही है. मार्केट का अपना चरित्र ऐसा है कि वह बिचौलियों को और जमाखोरों को उनकी उपयोगिता के परे जाकर अति करने पर स्वतः आर्थिक रूप से दंडित कर देता है. अगर नियम कानून बनाने की जरूरत है तो वह जमाखोरी के विरुद्ध बनाये जाने से अधिक मीडिया की अपराधिक गतिविधियों के विरुद्ध बनाये जाने की है. हम इधर बिचौलिये और जमाखोर नाम के भूत देखकर गठरी छोड़कर भागते हैं, उधर हमारी गठरी लेकर कोई और चंपत हो जाता है.
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बात विचार के स्वीकार्यता की है। बात हमारे मानसिकता के DNA में घुसपैठ किए वामपंथी अनैतिकता की है, डबल स्टैंडर्डस की है जहां हमें नेहरू की तरह प्रॉफ़िट इस शब्द से घृणा है लेकिन नौकरी ऐसी ही कंपनी में चाहिए जो धाकड़ मुनाफा कमा रही हो । भ्रष्टाचार शब्द तो हमें बुरा लगता है लेकिन जमाई कमाऊ बाबू चाहिए ।