पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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पार्थिव तो हम हैं ही। थोड़ी सी किरण अपार्थिव की हमारे भीतर है, उस किरण को और प्रज्वलित करना है। ध्यान उसी किरण को थोड़ी और उकसाहट देता है जैसे कोई आग को उकसाता हो, राख को झाड़ता हो। अंगारे जो राख में दब गए हैं, उभर आते हों। बस वैसे ही।

मगर मैं उन लोगों के बहुत पक्ष में नहीं हूं जो भिखारियों की तरह यहां-वहां, हर कहीं पूछते फिरते हैं, क्या करें? करना कुछ भी नहीं है। एक फैशन है। इस शंकराचार्य के पास जाओ, दलाई लामा के पास जाओ। आचार्य तुलसी के पास जाओ। और इस मुल्क में इतनी दुकानें हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। जन्मों-जन्मों तक ये दुकानें तुम्हें भटकाती रही हैं, और जन्मों-जन्मों तक भटकते रहो। और इस सारी भटकन में एक बात भूले बैठे हो कि जिसकी तुम खोज कर रहे हो वह तुम्हारे भीतर है।

दलाई लामा जब तिब्बत से भारत भागे तो जो सब से बड़ी सुखद घटना घटी वह यह थी, कि ल्हासा के किले में जितना सोना था वह तो सब दलाई लामा साथ ले आए, लेकिन जितने परेशान शास्त्र थे वे सब वहीं छोड़ आए। या यूं कहो कि गोबर ले आए और सोना छोड़ आए। गोबर की कीमत है। और तिब्बत के पास कीमती शास्त्र थे। लेकिन उन शास्त्रों को लाने की कोई फिकर नहीं। उनमें ऐसे शास्त्र थे जिनके मूल संस्कृत जला डाले गए हैं। क्योंकि हिंदुओं ने बौद्धों को नष्ट करने के लिए उन शास्त्रों को जला दिया। अब उनको पाने का एक ही उपाय है। उन्हें निब्बतीय से फिर वापस भारतीय भाषाओं में अनुवादित किया जाए। उन शास्त्रों में जीवन की बहुमूल्य कुंजियां छिपी हैं। लेकिन सोना ज्यादा कीमती है!

तो करोड़ों रुपयों का सोना...उसे तो...पूरा ल्हासा का किला खाली कर लिया और उसको लेकर भागे। इस आदमी में अगर जरा भी अध्यात्म होता तो यह सोना तो वहीं छोड़ देता, उस खालिस पारस को लेकर अपने साथ आता जो कभी भारत से तिब्बत गया था और फिर भारत से विलीन हो गया। लेकिन पारस पत्थर को पहचानना मुश्किल है। सोना तो किसी भी आंख में दिखाई पड़ जाता है।

तो न तो दलाई लामा के पास कोई अध्यात्म है; रही उनके डाक्टर की बात, सो उन बेचारे के पास क्या हो सकता है? हां, उसने एक भ्रांत धारणा जरूर गुणा के मन में भर दी कि और पार्थिव हो जाओ। बंबई में रहकर अब और पार्थिव कैसे होओ? अब तो नर्क ही जाना पड़ेगा। करो कोशिश। जाओ चौपाटी पर और छिड़को परफ्यूम, खाओ इडली-डोसा, बनो पार्थिव। तरू माता से दोस्ती कर लो। - ओशो