तो ये बेहद खूबसूरत कहानी है कि एक बार चार-पांच नेत्रहीन लोगों को एक हाथी जैसी विशालकाय प्रतिमा के पास ले जाया गया और उनसे कहा गया कि इस प्रतिमा को छूकर-महसूस करके बताइये कि हाथी दिखने में कैसा होता है। तो पहले बंदे को हाथी का पैर मिला तो उसने बताया कि हाथी जो है दिखने में खंबे जैसा है, दूसरे को हाथी की पूंछ मिली तो उसने बताया कि हाथी बिल्कुल झाड़ू जैसा है, तीसरे को सूंड, चौथे का कान मिला तो उसने बताया कि हाथी जो हाथ वाले पंखे की तरह है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में अलग-अलग पंथो/धर्मों द्वारा ईश्वर की अलग अलग व्याख्या को इसी रूप में देखा गया है। कहा गया है कि जैसे वो चार नेत्रहीन लोग अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार जितना हाथी को समझ पाए उसकी वैसी व्याख्या कर रहे हैं वैसे ही अलग-अलग पंथ जितना ईश्वर को समझ पाते हैं उसी प्रकार उसकी व्याख्या कर देते हैं। कोई कहता है हाथी खंबे जैसा है कोई कहता है हाथी झाड़ू जैसा अपने-अपने हिसाब से सब ठीक है और सब सच हैं।
ये तत्व आपको भारतीय ज्ञान परंपरा में अनेक जगह मिलेग जैसे "जिस प्रकार अलग अलग रंग की गाय एक ही रंग का दूध देती हैं वैसी ही अलग अलग पंथ, मत एक ही तरह की सीख देते हैं।" या "जैसे विश्व की अनेक नदियां अंत में सागर में जाकर ही मिलती है ऐसे ही विश्व के अनेक पंथ अंत में ईश्वर को ही प्राप्त होते हैं।" या जैसा स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में कहा "हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं"
चूंकि भारतीय ज्ञान परंपरा का ये सार है इसलिए बहुदेववादी और कई तरह के सांप्रदाय होने के बाद भी सनातनी इस बाद में लड़ते नहीं दिखते के मेरी कुल देवी या कुल देवता असली है तेरे वाला नहीं।
सिर्फ सनातन छोड़ दीजिए भारत भूमि से शुरू हुए चारों बड़े पंथ/धर्म हिन्दू, जैन, सिख, बौद्ध इन चारों को आपने एक दूसरे का धर्मांतरण कराते कभी नहीं देखा होगा। हिन्दू मौहल्ले में रहने वाला अकेला जैन परिवार आपको कभी ये कहता नहीं मिलेगा कि मुझ पर हिन्दू बनाने का दवाब बनाया जा रहा है। ना गुरूद्वारे जाने वाला कोई हिन्दू ये कहता मिलेगा कि मुझे सिख बनने के लिए कहा जा रहा है।
उसका कारण ही ये है कि जब आप मानते हैं सारे मार्ग सच्चे हैं तो किसी को मार्ग से बदलने की जरूरत ही नहीं है। जिसे लगता है ईश्वर सूंड जैसा है वो सूंड पकड़कर खड़ा रहे हैं जिसे ईश्वर हाथी की पूंछ जैसा लग रहा है तो वो पूंछ पकड़ कर खड़ा रहे हैं। फिर भी अगर किसी को सालों सदियों में पूंछ छोड़कर सूंड पर जाना है या सूंड छोड़कर पैर पकड़ने का मन है तो वो भी कर सकता है। चंद्रगुप्त जीवन के अंतिम दिनों में जैन बन गए थे तो उनके पोता अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया।
लेकिन ये विचार हर जगह नहीं है जो धर्म धर्मांतरण कराते हैं उनका मूल ही ये है कि सिर्फ हमारा मार्ग सच्चा है क्योंकि जब तक वो ये नहीं मानेंगे की सामने वाले का धार्मिक विचार झूठ है वो उसका धर्मांतरण करा ही नहीं सकते क्योंकि अगर अंत में एक ही ईश्वर को प्राप्त होना है तो फर्क क्या पड़ता है कि इस मार्ग से जाओ या उस मार्ग से।
जब वो कहते हैं प्रभु की शरण में आओ तो इसका मतलब ही ये है कि अभी आप जिसकी शरण में है वो या ईश्वर नहीं है या जब कहते कि इस अल्लाह पर ईमान लाओ तो इसका मतलब है कि अभी आपका जिस पर ईमान है वो ईश्वर और अल्लाह अलग हैं इसलिए इन दोनों धर्मों में धर्मांतरण पर इतना ज़ोर है।
लल्लनटॉप के लिए लिखे अपने लेख में ताबिश सिद्दीकी लिखते हैं कि इस्लाम की शुरूआत के समय काबा में ३०० से ज्यादा मूर्तियां थी जो वहां के अलग-अलग कबिलों की कुल देवियां थी जिनकी पूजा वहां के अलग-अलग कबिले के लोग करते थे लेकिन जब इस्लाम का प्रभाव बड़ा तो वहां के सारी मूर्तियां हटा ली गई और उन्हें कुल देवी मानने वाले सभी लोगों कों धर्मांतरण कराके उन्हें मुसलमान बना लिया गया। अब काबा में अल्लाह के अलावा किसी की उपासना नहीं होती। उन्होंने बहुत विस्तृत लिखा है उतना डिटेल में नहीं जा सकता।
इस बात को सेलिब्रेट करते हुए आलामा इकबाल ने लिखा, "दुनिया के बुतकदों में, पहले वह घर ख़ुदा का, हम इस के पासबाँ हैं, वो पासबाँ हमारा" जिसका अर्थ है, "काबा सबसे पहला स्थान है जिसे हमने मूर्तिपूजकों से मुक्त किया, हम इसके रक्षक हैं और ये रक्षक है हमारा" उन्हें लगता है जिस प्रकार के काबा को बुतपरस्तों से आजाद करा लिया और सबका ईमान अल्लाह पर ले आए वैसे ही वो दूसरी जगह भी कर सकते हैं और उन्होंने किया भी इकबाल की सोच से बना पाकिस्तान आज बुतपरस्तों से आजाद हो ही चुका है। मध्यकाल में जितने मंदिर तोड़े गए और उनके ऊपर मस्जिदें बनाई गई उसके मूल में ये ही विचार है।
जब फैज ने लिखा," सब बुत उठ वाए जाएंगे, नाम रहेगा अल्लाह का" इसके मूल में भी ये ही विचार है कि जिस प्रकार काबा से और अरब से और मिस्त्र बुतपरस्ती खत्म कर दी गई और सब बुत उठवा लिये गए उसी प्रकार "हम देखेंगे, वो दिन की जिसका वादा है' हालांकि इस कविता की उदारवादी व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि बुतो उठवाये जाएंगे यानि निरंकुश सत्ता समाप्त होगी और नाम रहेगा अल्लाह का यानि जो जनशक्ति है वो ही बचेगी। लेकिन ये वाख्या और भी खतरनाक है कि क्योंकि ऐसा करने पर आप बुतो के निरकुंश सत्ता से और अल्लाह को जनशक्ति के रुप में दर्शाकर उसी विचार को और बढ़ा रहे हैं जो ये मानता है मूर्ति पूजा fake है real god सिर्फ अल्लाह है और ये भाव आपको ऊर्दू के हर दूसरी गज़ल गीत में मिल जाएगी ।
मीर ने लिखा "परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे , नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले" मतलब ऐ बुत मैंने तेरी इस तरह पूजा की कि तू सभी की नज़रों में खुदा बन गया। मतलब तू असली खुदा है नहीं हमने तुझे पूज-पूज कर बना दिया। एक देश जहां ८० प्रतिशत जनता मूर्ति पूजा करती है वहां हर दूसरी गजल में बुतों के फेक गॉड बताया जाता रहा है। एक और फिल्मी गीत है इस तरह का " पत्थर के सनम, तुझे हमने मोहब्बत का खुदा जाना" इसमें भी वो ही भाव है कि तू मोहब्बत का खुदा है नहीं हमने तुझे जान लिया। इसके जवाब में आप हिन्दी की एक कविता नहीं ढूंढ पाएंगे जिसमें ईश्वर के किसी भारतीय रूप को सही बताया जा रहा हो ईश्वर के दूसरे रूप को फेक। क्यों , क्योंकि हम ये जानते हैं हाथी एक है।
बिल्कुल ये ही भाव ईसाईयों में मिलेगा आपको यूट्यूब में कई वीडियो मिल जाएंगे जिसमें ईसाई बनने के बाद लोग अपने घरों में मंदिर तोड़ रहे होते हैं या आदिवासी से ईसाई बने लोग अपनी पुरानी परंपरा छोड़ देते हैं। गाऊन पहनकर लड़कियां शादी कर रही हैं, अपने नाम यूरोपियन रख रहे हैं। सोचिये, भारत में हजारों सालों में जो आदिवासी वैदिक परंपरा के साथ साथ अपनी संस्कृति बनाए रख पाए वो दो तीन पीढ़ी में चाल्स, माइकल बनकर अपनी प्रकृति पूजा की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा त्याग देते हैं क्यों क्योंकि ईश्वर का वो मार्ग सच्चा है जो चर्च बता रहा है। प्रकृति पूजा फेक है और गॉड रियल है। वहीं अगर आप देखें कि आज अमेरिका में ३० प्रतिशत लोग योग करते हैं लेकिन शायद ही उनसे कभी किसी ने कहा हो कि भारतीय प्राचीन योग का लाभ लेने के लिए अब आपको चर्च जाना बंद करना पड़ेगा। इसलिए हमेशा हर उस बात, शेर ,गजल का विरोध कीजिये जो इस भाव को बल दे रही हो कि ये वाला मार्ग ही सच्चा है और दूसरा वाला मार्ग पाखंड क्योंकि धर्मांतरण के मूल में ये ही है।
सिखों में भी एक वर्ग आज ऐसा तैयार हो गया है कि जो हिन्दू देवी देवताओं के फर्जी बताता है। उनमें हाथी एक है वाला विचार कम हुआ है और मेरा ईश्वर ही सच्चा है ये विचार बढ़ा है इसलिए पंजाब में आपको टेंशन बढ़ी हुई दिखती हैं। पंजाब में रहने वाले हिन्दुओं से आप बात कीजिए वो आपको बेहतर बता देंगे।
पिछले साल मैं पहाड़ में जिस जगह घूमने गया ये बूढ़ी नागिन वहां की ग्राम देवी थी। मेरे कुल देवता नरसिंह भगवान हैं और ग्राम देवी शीतला माता लेकिन मैंने अपने जीवन ऐसी किसी माता का नाम भी नहीं सुना लेकिन मैंने उसी श्रद्धा भाव से इनके सामने सर झुकाया क्योंकि मैं जानता हूं हाथी एक ही है। रेड इंडियन जिस ईश्वर की उपासना करते थे, अफ्रीकी कबीले जिसे ईश्वर मानते हैं, अरब से खत्म कर दिए गए ईश्वर के सभी रूप या वो रूप जो आगे ईश्वर के रूप माने जाएंगे मेरे लिए वो सभी मार्ग सच्चे हैं। लेकिन तभी जब वो मेरे मार्ग को, मेरे विश्वास को भी सच्चा बतायें वरना कोई सोचता है कि सिर्फ वो प्रभु की शरण में हैं उसी की ईश्वर सच्चा है और मुझे प्रभु की शरण में आने के लिए ईश्वर के अपने रूप को छोड़ना होगा या ईमान वाला बनने के लिए काबा वालों की तरह अपनी कुल देवी छोड़नी पड़ेगी तो ये होने वाला नहीं है।
ईश्वर के सभी रूप पूजे जाएं
जो खत्म कर दिए गए वो फिर से शुरू किया जाए
जिन्हें लगता है सिर्फ वो सच्चे मार्ग वाले हैं उन्हें उदारवादी बनने पर मजबूर किया जाए।
तभी दुनिया में शांति आ सकती है क्योंकि तभी धर्मांतरण भी रुकेगा, राष्ट्रांतरण भी और सांप्रदायिक हिंसा भी...