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#योगदर्शन_______1

योग सम्यक जीवन का विज्ञान है। इसलिए इसका समावेश हमारे दैनिक जीवन में एक नियत चर्या के रूप में होनी चाहिए। योग का अर्थ ही एकत्व की प्राप्ति है। योग का लक्ष्य शरीर के विविध कार्यकलापों के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित करना है। योग स्थूल शरीर से प्रारंभ होकर मानसिक और भावनात्मक स्तर की ओर अग्रसर होता है। योग एक प्राचीन तांत्रिक सभ्यता है। जिससे मन भावना और कर्म के बीच सामंजस्य स्थापित कर उन्नत जीवन की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।

किंतु हम आज जिस सभ्यता में जी रहे है। वो सभ्यता इस शताब्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रगति से भौतिकी के उस उत्कर्ष पर पहुँच चुकी है जहाँ से वापस लौटना असंभव प्रतीत होती है। गलत परिपेक्ष्य एवं दुषित नीति ने मानसिक क्रांति और औद्योगिक क्रांति में तालमेल समाप्त कर दिया है। शारीरिक मानसिक विकृति उफान पर है। मानसिक अवसाद व असाध्य बीमारी जीवन को कठिन बना दिया है। यहीं पर प्राचीन मूल्यों के पुनरुत्थान की प्रबल आवश्यकता का अनुभव होता है। अच्छे जीवन एवं सुव्यवस्थित प्रगति की अवधारणा के जो मौलिक तत्व पूर्वकाल में विद्यमान थे, वे आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है।

ज्यों-ज्यों भौतिक क्रांति विस्तार लेती गयी उसके नीचे यौगिक पद्दति दबते चली गयी। जिस कारण सत्यम् शिवम् सुंदरम् की अवधारणा पीछे छूटते चली गयी। योग जो जीवन की तनाव और कोलाहलपूर्ण सामाजिक जीवन में स्वास्थ्य रक्षा एवं पारिवारिक मंगल का साधन था उससे नाता टूटने लगा।

योग शब्द का उपयोग, दुरुपयोग व दुष्प्रयोग हुआ। जबकि योग शब्द अतिप्राचीन और प्रचलित है। इसलिए विभिन्न प्रकार की भ्रांतियां इससे जुड़ती चली गयी। योग के योग दर्शन एवं तत्वमीमांसाओ को छोड़ कर योगासनों को ही अत्यधिक महत्व देने के कारण योग कालक्रम में व्यायाम का ही एक मात्र रूप बन कर रह गया। जबकि योग साधारण शारीरिक व्यायाम मात्र नहीं है बल्कि एक नवीन जीवन पद्दति को स्थापित करने का प्रभावकारी साधन है। जिसे वास्तविक रूप में लाने की आवश्यकता है ताकि यौगिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित किया जा सके।

मनुष्य एक तत्वदर्शी प्राणी है। जिसमें योग, अपने दर्शन व अभ्यास विधि दोनों ही रूपों में इस लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है।

मनुष्य अन्य सभी प्राणियों में एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसमें पूर्णता की भूख और प्यास है। मनुष्य एक खोजी प्राणी है। किंतु, आजकल हम भौतिक खोज में इतना लिप्त हो चुके है कि अपने स्वयं के स्वरूप, जीवन के उद्देश्य, आत्मबोध व आत्मिक रूप को भूल चुके है।

योग दर्शन का उद्देश्य जीर्णता से उबारना है। जिस हेतु उसकी प्रक्रिया व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर निश्चित की गई है। योग दर्शन की मान्यता है कि शरीर आत्मा का निवास स्थल है और मन के समान ही महत्वपूर्ण है। इसलिए शरीर की क्रिया विज्ञान भी मनोविज्ञान के समान ही महत्वपूर्ण है।
आज का व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए, रक्त संचार प्रणाली को शुद्ध करने व विभिन्न असाध्य बीमारियों से निवारण हेतु जो आसान करते है उसे योगाभ्यास कहा जाता है;
जो योग का एक बहुत ही छोटा सा अंग मात्र है। जैसे जैसे अधिकाधिक लोग योगाभ्यास के प्रति उन्मुख हो रहे हैं, योग संबंधी अवधारणा का विस्तार हो रहा है।

मनुष्य इस शरीर रूपी विलक्षण व तंत्रप्रणाली रूपी अबूझ संरचना को प्राप्त करने के बाद इतना निश्चित मान लिया है कि यह जब तक ठीक से काम कर रहा है तब तक इसकी देखभाल की कोई आवश्यकता ही नहीं है।

जबकि जीवन में प्रगति के साथ-साथ व्यक्तित्व में त्रुटियां बढ़ती चली जाती है। सिर्फ शरीर ही जीर्ण नहीं होती बल्कि मन, बुद्धि, विचार सब दूषित होती चली जाती है। भारत के संत, महात्माओं ने विचार, कर्म और वाणी को नियंत्रित करने हेतु कुछ वैज्ञानिक सूत्र योग के रूप में हम लोगों को प्रदान किए हैं। जिससे विचार, वाणी और कर्म के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित होता है।

'परमात्मा तक जाने का कोई छोटा मार्ग योग दर्शन प्रस्तुत नहीं करता वरन् एक लंबा और कष्ट साध्य मार्ग ही बताता है हमारे जीवन की क्षणभंगुरता ही हमें अपने लक्ष्य की अनिवार्यता को समझने की प्रेरणा देती है।'

अपने आप को समझने से भिन्न न कोई ज्ञान है और न ही अपने आप की उपेक्षा करने से बड़ा कोई अभिमान है। मन और शरीर के तप से जब आंतरिक शक्ति प्राप्त हो जाती है तभी आध्यात्मिक मुक्ति का अवतरण जीवन में होता है।

ईश्वरीय अनुभूति सामूहिक नहीं होती है यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने वाला अकेला यात्री होता है वही अपना मार्गदर्शक होता है और वही अपना परीक्षक भी होता है। वह जो निर्णय लेता है उसके अनुसार ही उठता या गिरता है। योग के मार्ग में सभी कुछ दूषणरहित है। इच्छा शक्ति की कमजोरी, निर्णय करने में असहजता और मन के उलझे विचार ये सब अशक्तता लाती है।

इन कमजोरियों का अस्तित्व यौगिक अनुशासन आत्मसात करने पर स्वतः समाप्त हो जाती है। आध्यात्मिक आंदोलनों की भीड़ ने अध्यात्म मार्ग के चुनाव के विकल्प को कठिन बना दिया है। जब पश्चमी दार्शनिक विचार भ्रम जाल में घिरा हो तब 'योग' जो हमारी प्राचीन धरोहर है हमारी सहायता के लिए उपस्थित होता है। ये ऐसी धरोहर है जिसे सावधानीपूर्वक संरक्षित किया जाना चाहिए और इसका सभी रूपों में सजगता पूर्वक अध्ययन करना चाहिए।

योग अपने दर्शन और अभ्यास-विधि, दोनों ही रूपों में इस परम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है जिसे विस्मृति के गर्भ से निकाल कर आज के मानवीय ज्ञान की योजना में, पूर्व के तरह ही गौरवमयी पद पर प्रतिष्ठित करना परम आवश्यक है।
राजऋषि भैरव