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Anil Mishra
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#नई_ग़ज़ल : #तजुर्बा
जब भी झुकता है आफताब जहाँ के आगे;
कद बढ़ा लेते हैं साए भी बला के आगे।
हवा-ओ-स्याह की यारी से आश्'ना हूँ मैं;
मेरी तालीम मुकम्मल है शमा के आगे।
ज़िद मेरी हार गयी शर्म-ओ-हया के आगे।
फिर चली यार की तदबीर, ख़ता के आगे।
लबों पे कलमा और हाँथ में नश्तर भी था;
गर्दनें झुक गयीं सब उसकी अदा के आगे।
जुदा है तेरी अदा सिर को पटकने की मगर;
ये हुनर कुफ्र है, जब होगा खुदा के आगे।
कोई मुश्किल हो, मेरे पांव कहाँ रुकने थे;
मुझको दिखती हैं बहारें जो क़ज़ा के आगे।
रगो-ज़हन में ज़रा भी नहीं वतन की महक;
वो किसी रोज़ बिक चलेगा जफ़ा के आगे।
लाख नफरत हो एक उंस बहुत है 'कामिल';
वजूद स्याह का कितना था शुआ के आगे।
©अनिल धर्मदेश 'कामिल'
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