मजहब के नाम पर
तो कभी रीतियों के नाम पर
जाति संबंधी प्रथाओं की रक्षा
तो कहीं समाजिक सुरक्षा के लिए
पूर्वजों का नियम व तप
तो कहीं पीढ़ियों के संस्कार
सारे रिवाज और प्रवंचनाएँ
सारी रूढ़ियाँ और दबाव
इज्जत का भारी ठीकरा
कहीं उपेक्षाओं का पहाड़
बेशुमार अव्यक्त भेदभाव
और फिर शक्ति की पूजा!
लानत है अल्पसंख्यक की
दुहाई देने वालों पर
और कभी तुम भी शर्म करो
आरक्षण की भीख मांगने वालों
आतंकी के हक तक स्खलित
हुए लोगों को छूट देते हुए....!
आज पूछना चाहता हूँ!
कभी सोंचा है औरत के बाबत?
जो, सौरी से श्मशान तक
आत्मनिर्णय से उड़ान तक
हर आयु में, हर दिन और
हर पल निषेधित है।
जिसने आश्रिता को आभूषण
और पराधीनता को समर्पण
अंतहीन बंधनों को श्रृंगार
और प्रतिबंधों को संस्कार माना
वह मांगती नहीं,
सिर्फ देती आई है
ममता और प्यार...बार-बार।