नागपुर में वर्ष प्रतिपदा विक्रमी संवत के पावन दिन तदनुसार 1 अप्रैल, 1889 को संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक परमपूज्य डॉ० केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्म हुआ था। वे जन्मजात देशभक्त थे।
आजादी के आंदोलन की आहट भी मध्य प्रान्त के नागपुर में सुनाई नहीं दी थी और केशव के घर में राजकीय आन्दोलन की ऐसी कोई परम्परा भी नहीं थी, तब भी शिशु केशव के मन में अपने देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज के बारे में गुस्सा था तथा राष्ट्र को स्वतंत्र कराने की अदम्य इच्छा थी। इस सन्दर्भ से जुड़े अनेक प्रसंग हैं।
विक्टोरिया रानी के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त विद्यालय में बांटी मिठाई को केशव द्वारा (उम्र 8 साल) कूड़े में फेंक देना या जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर सरकारी भवनों पर की गई रोशनी और आतिशबाजी देखने जाने के लिए केशव (उम्र 9 साल) का मना करना, ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं।
बंग-भंग विरोधी आन्दोलन का दमन करने हेतु अंग्रेजों ने वन्देमातरम् के उद्घोष करने पर पाबन्दी लगा दी थी। 1907 में इस पाबन्दी की धज्जियां उड़ाने के लिए केशव ने प्रत्येक कक्षा में वन्देमातरम् का उद्घोष करवा कर विद्यालय निरीक्षक का 'स्वागत' करवाने की योजना बनाई थी। इसके माध्यम से उन्होंने सबको अपनी निर्भयता, देशभक्ति तथा संगठन कुशलता से परिचित कराया।
मुम्बई में चिकित्सा शिक्षा की सुविधा होते हुए भी, उन्होंने कोलकाता में यह शिक्षा प्राप्त करने का निर्णय लिया। इसका कारण था कोलकाता उन दिनों क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था। उन्होंने शीघ्र ही क्रान्तिकारी आन्दोलन की शीर्ष संस्था 'अनुशीलन समिति' में अपना स्थान बना लिया था। वे 1916 में डॉक्टर की उपाधि के साथ नागपुर वापस आए। घर की आर्थिक अवस्था ठीक न होते हुए भी उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू नहीं किया। यही नहीं उन्होंने विवाह आदि करने का विचार भी त्याग दिया और पूर्ण शक्ति के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद गए इस दौरान डा० हेडगेवार दो बार जेल भी गए।
डॉक्टर जी का सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक दृष्टिकोण, दर्शन एवं नीतियां तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, कांग्रेस-क्रांतिकारी आदि के आधार पर निर्धारित नहीं था। व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्ग से कहीं बड़ा महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्ति का मूल ध्येय था। इसीलिए 1921 में प्रांतीय कांग्रेस की बैठक में लोकनायक अणे की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की निंदा का प्रस्ताव लेने का प्रयास हुआ। तब डॉक्टर जी ने 'आपको उनका मार्ग पसंद न हो, पर उनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं करना चाहिए' यह कह कर उस प्रस्ताव को नहीं आने दिया और राजनीति की तस्वीर बदल दी।
वे कहते थे कि व्यक्तिगत मतभिन्नता होने पर भी साम्राज्य विरोधी आन्दोलन में सभी को साथ रहना चाहिए और इस आन्दोलन को कमजोर नहीं होने देना चाहिए।
संघ स्थापना:
स्वतंत्रता प्राप्त करना किसी भी समाज के लिए अत्यंत आवश्यक एवं स्वाभिमान का विषय होने के बावजूद वह चिरस्थायी रहे तथा समाज आने वाले सभी संकटों का सफलतापूर्वक सामना कर सके इसलिए राष्ट्रीय गुणों से युक्त और सम्पूर्ण दोषमुक्त, विजय की आकांक्षा तथा विश्वास रखकर पुरुषार्थ करने वाला, स्वाभिमानी, सुसंगठित समाज का निर्माण करना अधिक आवश्यक एवं मूलभूत कार्य है, यह सोचकर डॉक्टर जी ने 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। प्रखर ध्येयनिष्ठा, असीम आत्मीयता और अपने आचरण के उदाहरण से युवकों को जोड़कर उन्हें गढ़ने का कार्य शाखा के माध्यम से शुरू हुआ।
शक्ति की उपासना, सामूहिकता, अनुशासन, देशभक्ति, राष्ट्रगौरव तथा सम्पूर्ण समाज के लिए आत्मीयता और समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से त्याग करने की प्रेरणा इन गुणों के निर्माण हेतु अनेक कार्यक्रमों की योजना शाखा नामक अमोघ तंत्र में विकसित होती गई। सारे भारत में प्रवास करते हुए अथक परिश्रम से केवल 15 वर्ष में ही आसेतु हिमालय सम्पूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने में वे सफल हुए।
अपनी प्राचीन संस्कृति एवं परम्पराओं के प्रति अपार श्रद्धा तथा विश्वास रखते हुए भी आवश्यक सामूहिक गुणों की निर्मिति हेतु आधुनिक साधनों का उपयोग करने में उन्हें जरा सी भी हिचक नहीं थी। अपने आपको पीछे रखकर अपने सहयोगियों को आगे करना और सारा श्रेय उन्हें देने की उनकी संगठन शैली के कारण ही संघ कार्य की नींव मजबूत बनी।
संघ कार्य आरंभ होने के बाद भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए समाज में चलने वाले सभी आंदोलनों के साथ उनका न केवल सम्पर्क था, बल्कि समय-समय पर वे व्यक्तिगत तौर पर स्वयंसेवकों के साथ सहभागी भी होते थे।
सामूहिक गुणों की उपासना तथा सामूहिक अनुशासन, अत्मविलोपी वृत्ति स्वयंसेवकों में निर्माण करने हेतु भारतीय परंपरा में नए ऐसे समान गणवेश, संचलन, सैनिकी कवायद, घोष, शिविर आदि कार्यक्रमों को संघ कार्य का अविभाज्य अंग बनाने का अत्याधुनिक विचार भी डॉक्टर जी ने किया। संघ कार्य की होने वालीं आलोचनाओं को अनदेखा कर, उनकी उपेक्षा कर वाद-विवाद में न उलझते हुए सभी से आत्मीय सम्बन्ध बनाए रखने का उनका आग्रह रहता था।
डॉ. हेडगेवार शब्दों से नहीं, आचरण से सिखाने की पद्धति पर विश्वास रखते थे। संघ कार्य की प्रसिद्धि की चिन्ता न करते हुए, संघ कार्य के परिणाम से ही लोग संघ कार्य को महसूस करेंगे, समझेंगे तथा सहयोग एवं समर्थन देंगे, ऐसा उनका विचार था।
इसीलिए उनके निधन होने के पश्चात् भी, अनेक उतार-चढ़ाव संघ के जीवन में आने के बाद भी, संघ कार्य अपनी नियत दिशा में, निश्चित गति से लगातार बढ़ता हुआ अपने प्रभाव से सम्पूर्ण समाज को स्पर्श और आलोकित करता हुआ आगे ही बढ़ रहा है।
संघ की इस यशोगाथा में ही डॉक्टर जी के समर्पित, युगदृष्टा, सफल संगठक और सार्थक जीवन की यशोगाथा है।