पर्वतीय क्षेत्र के युद्ध में जीत उसी की होगी जिसका आकाश पर अधिकार हो । वर्तमान परिस्थिति में चीन से युद्ध में भारत की विजय निश्चित है । भविष्य में चीन अक्साइ−लद्दाख में या आसपास नये हवाई अड्डे बनाकर भारत की आकाशीय बढ़त को चुनौती दे सकता है । अतः सन्धि तोड़ने का आरोप लगाकर भारत को पूरे अक्साइ−लद्दाख पर कब्जा जमा लेना चाहिये और चीन युद्ध बढ़ाये तो पूरे तिब्बत को स्वतन्त्र कराने का प्रयास भारत को कराना चाहिये जिसमें अमरीका भी साथ देगा ।
इसमें खर्च तो पड़ेगा किन्तु उससे अधिक लाभ होगा । पहला लाभ है चीन और भारत के बीच स्वतन्त्र तिब्बत का बफर राष्ट्र जिस कारण चीन से सीमा विवाद सदा के लिये समाप्त हो जायगा । दूसरा लाभ होगा विश्व में भारत की प्रतिष्ठा,जिसका आर्थिक लाभ दीर्घकाल में मिलेगा ।
चीन कैसा देश है इसका उदाहरण संलग्न मानचित्र से स्पष्ट है जिसमें स्पष्ट दर्शाया गया है कि १९५६ ई⋅ में चीन ने अक्साइ−लद्दाख पर अपना जो दावा प्रस्तुत किया था उसकी सीमा चीन ने अपने १९६० ई⋅ वाले दावे में बढ़ा दी । १९६० ई⋅ वाले दावे को चीन ने १९६२ ई⋅ के युद्ध में लागू कर दिया । किन्तु चीन के पास दोनों दावों के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है । उसका दावा भी बदलता क्यों है?१९५६ ई⋅ में चाउ एन लाई को अक्ल नहीं थी और १९६० ई⋅ में अक्ल आ गयी?या मन बढ़ गया?माओ का सिद्धान्त भी है कि क्रान्ति बन्दूक की नाल से निकलती है,यद्यपि मार्क्स ने कहा था कि क्रान्ति श्रमजीवी वर्ग की चेतना से निकलती है । जिसकी चेतना बन्दूक की भाषा ही समझती है उसे बन्दूक द्वारा ही समझाया जा सकता है । चीन से किसी भी प्रकार की वार्ता में समय नष्ट करना व्यर्थ है । साम−दाम का चीन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा,वह दण्ड−भेद का ही पात्र है ।
१९५६ ई⋅ के दावे में गलवान घाटी पूर्णतया भारत के हिस्से था,१९६० ई⋅ में चीन ने उस घाटी के अधिकांश पर दावा ठोक दिया । तब तो भारत को भी दक्षिण और दक्षिण−पूर्वी चीन पर दावा ठोक देना चाहिये,वहाँ बहुत से प्राचीन हिन्दू मन्दिर मिले हैं ।
“चीन” शब्द ही भ्रामक है । “चीनी” नाम की कोई भाषा या संस्कृति है ही नहीं । एक राजवंश के नाम पर यह नाम एक छोटे से राज्य को दिया गया जिसने कालान्तर में अपनी सीमायें बढ़ायी और बाद में पूरे देश को ही अपना नाम बलपूर्वक दे दिया,उससे पहले “चीन” का अस्तित्व नहीं था ।
कीड़े−मकोड़े खाना छोड़कर चीन को एकता के सूत्र में बाँधने वाला अन्य कोई लक्षण नहीं है । चीन को समझाना सम्भव नहीं है क्योंकि सारे समझदार लोगों को “सांस्कृतिक क्रान्ति” के बहाने माओ ने मरवा डाला था । पिशाच देश है । भारत से गये संस्कृतज्ञ मन्त्रियों ने मन्त्रिन लिपि बनायी जो कालान्तर में मन्दारिन कहलायी,जिसमें नौ प्रमुख चीनी भाषाओं को बोलने वाले लोग उस लिपि के चिह्न का उच्चारण तो अलग−अलग करते हैं किन्तु उस चिह्न का अर्थ समान रहता है जिस कारण लिखकर एक दूसरे की बात समझ लेते हैं,किन्तु उन नौ प्रमुख भाषाओं के लोग आपस में वार्तालाप कर ही नहीं सकते । मन्दारिन−चीनी भी कोई एक भाषा नहीं है,कभी पेकिंग कहते हैं तो कभी बाइजिंग!अन्य कई भाषायें भी हैं जिनके समुदायों को साम्राज्यवादी चीन ने गुलाम बना रखा है । एक बार चीन की जमकर पिटाई हो जाय तो चीन टूटकर बिखर जायगा । पिशाच देश का टूटना विश्व के लिये शुभ ही होगा ।
मोदी जी तो चीन पर आक्रमण नहीं कर सकते,किन्तु चीन को ही युद्ध छेड़ने की “सद्बुद्धि” आ जाय तो सदा के लिये उसकी अक्ल ठिकाने लग जायगी । अभी कुछ दशक लगेंगे किन्तु लोग चाहें तो शीघ्र ऐसा सम्भव है ।