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आखिर क्या भारत-चीन के कूटनीतिक संबंधों में दलाईलामा की भी भूमिका है...!!!

चीन का इतिहास एक बहुत ही कमजोर देश का इतिहास रहा है, बहुत कम ऐसे युद्ध रहे हैं जिन्हें चीन ने जीता हो। मंगोलिया जैसा एक छोटा सा देश इस विशाल देश को जब निरंतर कई शताब्दी तक पीटता रहा, तब इसने अपनी महान दीवार का निर्माण किया। चीन की महान दीवार, चीन की बहादुरी का नहीं बल्कि कमजोरी का परिचायक है।

एक दुर्बल राष्ट्र के रूप में चीन के इतिहास और अतीत को समझ कर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि चीन से भारत को घबराने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि इस देश को तो वह अपने विद्यालयों के छात्रों से ही पिटवा सकते हैं। परंतु उसी समय पंडित नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने के दृष्टिकोण से भारत को बुद्ध की अहिंसा के रास्ते पर डाल दिया। अपनी इस नीति के अंतर्गत पंडित नेहरू ने यह मान लिया कि अब भविष्य में संसार में कभी युद्ध नहीं होंगे, इसलिए उन्होंने युद्ध के हथियार बनाने की फैक्ट्रियों में कनस्तर बनवाने आरंभ करा दिये।

पंडित नेहरू को अपने राजनीतिक गुरु गांधी जी की शिक्षाओं का पाला मार गया। उन्हें ऐसा पक्षाघात हुआ कि वह अंतरराष्ट्रवाद के दीवाने हो गए और राष्ट्रहित को सर्वथा भूल गए। यद्यपि सावरकर जी ने उस समय नेहरू जी को सचेत करते हुए कहा था कि भारत को इस समय महात्मा बुद्ध की नहीं युद्ध की आवश्यकता है, अर्थात अपनी सैनिक तैयारी के प्रति लापरवाही करना किसी भी राष्ट्र के लिए आत्मघाती हो सकता है। भारत को चीन जैसे नए कम्युनिस्ट देश के प्रति सावधान रहना चाहिए, जिसने अपने आपको साम्राज्यवादी घोषित किया है।

भारत-चीन संबंधों के बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अक्साई चीन पर भारत अपना अधिकार जताता है। इसका कारण है कि अक्साई चीन जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का एक हिस्सा है, लेकिन इस पर नियंत्रण और कब्जा चीन के जिनाश‍ियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र का है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत का एक भाग होने के उपरांत भी अक्साई चीन में जिनाशियांग का ही प्रशासन तंत्र कार्य करता है। वास्तव में, यह पूरी तरह से निर्जन और बहुत उंचाई पर स्थित बंजर भूमि है। जिसे जिनाशियांग-तिब्बत राजमार्ग अलग करता है। धुर पूर्व में स्थित मैकमोहन लाइन के दक्षिण में एक और बड़ा विवादित क्षेत्र है और इसे प्रारंभ और पूर्व में नॉर्थ इस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) कहा जाता था।

हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि जब चीन ने 1951 में तिब्बत को हड़पा था तो उस समय बौद्धों के धर्मगुरु दलाईलामा 1959 में तिब्बत को छोड़कर भारत आ गए थे। तब से ही वह भारत में रह रहे हैं। इस घटना को हमने बहुत हल्के में लिया है और देश में इस पर कभी कोई चर्चा भी नहीं होती कि दलाईलामा के भारत आने से भारत को क्या-क्या हानियां उठानी पड़ी हैं..?? वास्तव में भारत और चीन के संबंधों को खराब करने में दलाई लामा का भारत में रुके रहना सबसे महत्वपूर्ण कारण है। जब दलाईलामा भारत पहुंचे तो उसके ढाई-तीन वर्ष पश्चात ही चीन ने भारत पर 1962 का आक्रमण किया था। दलाईलामा को शरण देने के दंड में चीन ने भारत का सवा लाख वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल अपने कब्जे में ले लिया था। इस प्रकार दलाईलामा न केवल अपने देश को खोने में सफल हुए बल्कि भारत का भी सवा लाख और वर्ग किलोमीटर भूभाग चीन को दिलवाने में सहायक हुए। इसके अतिरिक्त भारत को जो अपमानजनक हार झेलनी पड़ी और अपने अनेकों वीरों का बलिदान देना पड़ा, वह सब अलग है।

माना कि शरणागत को शरण देना भारत की पुरानी परंपरा है, परंतु शरणागत का भी अपना धर्म होता है। शरणागत दलाईलामा अपने देश तिब्बत को तो लगभग भूल चुके हैं, क्योंकि इस प्रकार का संकेत वह अपनी बातचीत में अब देने लगे हैं कि तिब्बत उनके जीवन काल में उन्हें मिल नहीं पाएगा। परंतु भारत में वह अपने बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ाते जा रहे हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर भारत में यह सब हो रहा है और इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है कि आने वाले समय में इसके परिणाम क्या होंगे..?? यानि शरणागत अपना धर्म भूल चुका है।

दलाई लामा जब भारत पहुंच चुके थे तो चीन ने धीरे-धीरे लद्दाख में घुसपैठ करनी आरंभ की और वहां के बहुत बड़े क्षेत्र को अपने कब्जे में करने में वह सफल हो गया। देश की तत्कालीन नेहरू सरकार सारे घटनाक्रम के प्रति आंखें मूंदे बैठी रही। तब इस पर देश की संसद में गर्मागर्म बहस हुई। उस बहस में पंडित नेहरू ने कह दिया कि लद्दाख की भूमि पूरी तरह निर्जन और बंजर है, क्या हो गया यदि ऐसी भूमि पर चीन ने कब्जा कर लिया है..?? यह घटना 1962 के युद्ध के बाद की है। वास्तव में पंडित नेहरू का ऐसा बयान अपनी असफलताओं और मूर्खताओं को छुपाने के लिए दिया गया बयान था।

लद्दाख के बारे में पंडित नेहरु के द्वारा दिए गए इस बयान को सुनकर संसद के अधिकांश सदस्य सन्न रह गए थे। यहां तक कि उनकी पार्टी के लोग भी उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं करते थे। तब महावीर त्यागी जी ने भरी संसद में नेहरू जी को बोला था कि – नेहरू जी ! मेरे सर पर भी बाल नहीं उगते तो क्या मुझे अपना यह सर भी काट कर दे देना चाहिए। पंडित नेहरू ने कभी ये अपेक्षा नहीं की थी कि उनकी ही पार्टी का नेता उनसे ऐसा प्रश्न करेगा। महावीर त्यागी जैसे राष्ट्रवादी सांसद के मुंह से ऐसी बात सुनकर नेहरू जी की बोलती बंद हो गई थी।

1962 के युद्ध के समय चीन ने भारत के जिस क्षेत्र पर कब्जा किया था, उसे आजकल अरुणांचलप्रदेश के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के मध्य उस समय 1914 में शिमला में एक समझौता हुआ था जिसमें इस क्षेत्र में दोनों देशों की सीमा का निर्धारण करने के लिए एक मैकमोहन रेखा खींच दी गई थी। उस समय मैकमोहन नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी थे। उन्होंने ही दोनों देशों के नक्शे पर अपनी कलम से यह रेखा खींची थी। तब से उन्हीं के नाम से इस रेखा को मैकमोहन रेखा कहा जाने लगा।

जब दलाई लामा भारत में सरकारी मेहमान बन कर आ गए तो चीन ने जोरदार ढंग से अपने और भारत के बीच की इस मैकमोहन रेखा को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। लेकिन चीन इस समझौते और करार को पूरी तरह से अस्वीकार करता है। चीन का कहना है कि यह पूरा का पूरा क्षेत्र उसका है। विदित हो कि भारत और चीन के बीच लड़ा गया वर्ष 1962 का युद्ध इन दोनों ही क्षेत्रों में लड़ा गया था। वर्ष 1996 में दोनों देशों के बीच ‘विश्वास बढ़ाने के उपाय के तहत’ विवाद का निपटारा किया था और दोनों देशों के बीच पारस्परिक सहमति से वास्तविक नियंत्रण रेखा का निर्धारण किया गया था। लेकिन 2006 में भारत में चीन के राजदूत ने दावा किया था कि समूचा अरुणाचल प्रदेश एक चीनी क्षेत्र हैं।

कुल मिलाकर एक ही प्रश्न है कि दलाईलामा को भारत में शरण देने का मूल्य अभी भारत को और कितना चुकाना है..?? विशेष रुप से तब जबकि सारा संसार तिब्बत को अब चीन का ही एक भाग मान चुका है और तिब्बती लोग भी स्वयं को चीन के साथ मिला हुआ मान चुके हैं । इतना ही नहीं दलाई लामा स्वयं भी अब तिब्बत के स्वतंत्र होने की आशा छोड़ चुके हैं। तब भारत दलाई लामा को अपने यहां क्यों शरण दिए हुए हैं..??

खैर जो हुआ सो हुआ। आज का भारत भी 1962 का भारत नही है। नए कलेवर, सुदृण नेतृत्व और भारत माता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली हमारी सेना चट्टान की मानिंद भारतीय सीमा रेखा की रक्षा करना जानती है। इसका आभास भी धूर्त चीन को डोकलाम में मुँह की खाने के बाद अब गलवान की घाटी में हो गया है। सैनिक तो हम नही हैं, लेकिन चीन का आर्थिक बहिष्कार कर हम देश के राष्ट्रयज्ञ के इस अग्निकुंड में आहुति तो डाल ही सकते हैं, यही समय की मांग व राष्ट्रधर्म का द्योतक है।

Sachin Tyagi