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वॉरटाइम पीएम
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सांस्कृतिक व भाषाई विविधता के कारण, अपने अंतस में एक अनूठी जटिलतम राजनीति को पालने वाले देश में, पीएम मोदी ने लोकप्रियता की जिस ऊँचाई को छुआ है, उन्हें “ऑलटाइम पीएम” कहा जाना चाहिए, सर्वकालिक प्रधानमंत्री।

मग़र आज का वक़्ती तक़ाज़ा है कि उन्हें समांतर रूप से “वॉरटाइम पीएम” भी कहा जाए. चूँकि हम इंसान सदा से इतिहास के सीखतर शागिर्द रहे हैं. और इतिहास ने फ़ौजी बंकरों तक पहुँचने वाले राजनेता को यही ख़िताब दिया है : “वॉरटाइम पीएम”, युद्धकालिक प्रधानमंत्री।

तमाम ऐतिहासिक तक़ाज़ों ने, एक राष्ट्राध्यक्ष की जिस छवि का निर्माण किया है, उसके अनुसार फ़ौजी बंकरों में गाहे-बगाहे जाना भी शुमार आदत नहीं! मग़र इस माने गए अलिखित “प्रोटोकॉल” को दो लोगों ने सिरे से ख़ारिज किया है :

१) ब्रितानी राजनेता विंस्टन चर्चिल.
२) भारत के पीएम मोदी.

तनिक-सा और मुख़्तसर हों, तो सुखद आश्चर्य होगा कि पीएम मोदी दुनिया के पहले प्रधानमंत्री हैं, जोकि संघर्ष व संघर्ष की संभावनाओं के बीच फ़ौजी बंकरों में जा डटे.

चूँकि चर्चिल ने जब पहली बार बंकर में दस्तक दी, तब वे प्रधानमंत्री न थे, बल्कि उन्हें सत्रहवीं शताब्दी के ब्रिटेन में प्रचलित एक पद “लार्ड ऑफ़ एडमिरैलिटी” दिया गया था, यानी कि ब्रिटेन की कथित शक्तिशाली नौसेना का सर्वेसर्वा. सन् 1964 में इसी पद का नाम बदल कर “रक्षामंत्री” कर दिया गया.

आज के परिदृश्य में इस बात को कुछ यों समझें कि लद्दाख का प्रवास पीएम मोदी के स्थान पर “रक्षामंत्री” करें, जिन्हें कि कल ही नियुक्त किया गया हो. हालाँकि प्रधान का पूरा मंडल, उसकी अपनी शक्तियों में ही गिना जाता है, किंतु कितना हास्यास्पद माहौल बनता कि उसके अपने मंडल में कोई ऐसा न होता, जो बंकरों में दस्तक देकर सैनिकों का मनोबल बढ़ा सके।

ब्रिटेन जैसे देश के शीर्षतम नेतृत्व के लिए कितनी लज्जास्पद घटना रही होगी कि प्रधानमंत्री फ़ौजी मोर्चे को नहीं संभाल सकता और उसका कोई “फ़र्स्ट लॉर्ड” मोर्चे पर जाने को सज्ज नहीं. वैसी स्थिति में एक पूर्व सैन्य-अधिकारी “चर्चिल” को, इस बिना पर चुना गया कि उनका जर्मन विषयक अध्ययन बड़ा शानदार है।

आजकल तो सब इंटरनेट और उँगलियों के गठजोड़ पर उपलब्ध है, किंतु उनदिनों शत्रुपक्ष की फ़ौरी जानकारियाँ होना भी एक बड़ा गुण माना जाता था!

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तो दोस्तो, ये उनदिनों की बात है, जब सन् 1939 अपने दिन काट रहा था. हिटलर ने नाज़ी सेनाओं के बल पर फ़्रांस और पोलैंड को घुटनों पर झुका लिया और यॉरप में बड़े विनाश की बयार चला दी.

ऐसे में, ब्रितानी आवाम की पुकार थी कि हर रोज़ मोर्चे पर मुँह की खाते और मरते युवाओं को युद्ध की आग से बचा लिया जाए. मग़र वो जनता एक अक्षम प्रधान को चुनने का दंश भोग रही थी. तत्कालीन ब्रितानी पीएम “चेम्बरलिन” की तुलना भारत के ठीक पूर्व एक्सिडेंटल पीएम से की जाए, तो कोई अतिशियोक्ति न होगी.

“चेम्बरलिन” के पास न तो स्वयं बुलेटप्रूफ़ घेराबंदी से बाहर आने का साहस था, न ही उनके रक्षामंत्री के पास पूरे होश में चहलक़दमी करने की शक्ति. ऐसे में देश की जनता ने “चर्चिल” को चुना. और फिर जनता ने अगले ही बरस उन्हें पीएम चुन लिया. चूँकि यॉरप युद्ध में झुलस रहा था, सो उन्हें “वॉरटाइम पीएम” की अनूठी उपाधि से नवाज़ा गया.

वस्तुतः चर्चिल के उत्तेजक भाषण व फ़ौजी बंकरों के अभूतपूर्व दौरे, मात्र एक चुनाव प्रचार का हिस्सा थे, जिसे कि वो अगले ही बरस जीत भी गए. किंतु वास्तव में एक “वॉरटाइम पीएम” क्या होता है एवं उस उपाधि को धारण करने के क्या मायने हैं, ये प्रकटीकरण आज श्री मोदी ने समग्र विश्व को समक्ष किया है.

और सबसे बड़ी बात कि कोई उत्तेजक भाषण नहीं!

शायद किसी किताब में न मिले, ब्रितानी रेडियो संग्रहालय भी न बता सके कि चर्चिल ने अपना पहला फ़ौजी बंकर का भाषण कितनी देर में कहा। मग़र अब ये सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित हो गया कि कुल साढ़े छब्बीस मिनट लद्दाख की पहाड़ियों में पीएम मोदी की आवाज़ गूंजी.

हमने सुना, आपने सुना और चीन सहित पूरे विश्व ने सुना कि किस तरह भारत ने विस्तारवादी शक्तियों के प्रति अपना रुख़ मुखर कर दिया और कहा :

“लद्दाख भारत का मस्तक है!”

अब तलक भारत की जनता ने इस तरह के वक्तव्य कश्मीर के बारे में सुने हैं. मग़र लद्दाख के विषय में ऐसा कहने वाला पहला ग़ैर-लद्दाखी राजनेता देखा गया. हालाँकि इसका एक कारण लद्दाख और कश्मीर घाटी का एकीकृत राज्य होना हो सकता है.

काश कि वास्तव में यही कारण होता! किंतु दुर्भाग्यवश ये वास्तविक कारण नहीं है. वास्तविक कारण है कश्मीर घाटी का मुस्लिम बाहुल्य होना और मुस्लिमों को भारत का सिरमौर बताने की एक विशेष कांग्रेसी ग्रंथि का होना.

जब ये दोनों कारण मिलते हैं, तो भारत का मस्तक कश्मीर हो जाता है!

इतिहास साक्षी है कि जब जब कश्मीर और लद्दाख मिले हैं, दोनों प्रजाओं में दुःख भोगा है. ऐतिहासिक तथ्य है कि लोहार-प्रदेश को ही “लेह-लद्दाख” नाम से जाना जाता है, जोकि कभी कश्मीर घाटी के साथ सफलतापूर्वक एकीकृत नहीं हो सका है.

जब जब इन दोनों की एकीकृत करने का प्रयत्न हुआ, परिणाम शुभ नहीं आए!

पहला प्रयास राजा हर्षदेव ने किया. ये काल बाराहवीं सदी का एकदम आरंभ का काल रहा होगा. किन्तु वो अपने प्रयासों में असफल रहा और जनविद्रोह में मारा गया. इस जनविद्रोह के नायक उच्चल और सुस्सल थे. दोनों ने राज्य को पुनः बाँट लिया. सुस्सल ने लोहार-प्रदेश लिया और उच्चल ने कश्मीर.

बात यहीं नहीं रुकी! अब दोनों भाई एक दूसरे के राज्य को प्राप्त करने के षड्यंत्र करने लगे. कुलमिला कर प्रयास वही था, कश्मीर का एकीकरण. और इस योजना में सुस्सल सफल हुए. ग्यारह सौ ग्यारह में उच्चल मारा गया. अब सुस्सल समूचे कश्मीर और लोहार-प्रदेश के राजा थे!

किन्तु एकीकृत राज्य तो मानो शापित था. सुस्सल को भी विद्रोहों का सामना करना पड़ा. हर्षदेव के पौत्र भिक्षाचर ने विद्रोह किया, किन्तु असफल रहा. डामर-भूपतियों के प्रधान गर्गचंद्र ने भी विद्रोह किया, किन्तु सुस्सल ने उसे मार डाला.

इस भयानक गृहयुद्ध में राज्य की सेना कमज़ोर हो गई और एक दिन भिक्षाचर ने अपना पैतृक राज्य हासिल कर लिया. किन्तु एक वर्ष में ही सुस्सल ने पुनः राज्य पाकर, केवल जनता को भ्रमित करने के लिए अपने पुत्र जयसिंह को राजा घोषित किया. वास्तविक शासक स्वयं बना रहा!

स्थितियां तब काबू में आईं, जब डामर-भूपतियों के नए नेता गर्गचंद्र के पुत्र पंचचंद्र की सहायता से जयसिंह ने विद्रोह को काबू किया और लोहार-प्रदेश को एक नया राजा देकर राज्य को पुनः बाँट दिया.

ये महज एक सदी का वृत्तांत उदाहरण बतौर है. सत्य ये है कि कश्मीर और लोहार-प्रदेश हर सदी में इसी तरह मिलते और जुदा होते रहे हैं. और ठीक इसी बँटवारे को इक्कीसवीं सदी ने भी दुहरा दिया, जोकि चीन को अच्छा-सा नहीं लग रहा. चूँकि उनका अंतरराज्यीय विद्रोह को बढ़ावा देने का उद्देश्य अब पूर्ण न हो सकेगा.

यों भी, चीन की मंशा भारतभूमि को तिब्बत की भाँति क़ब्ज़ाने की नहीं है. मंशा यों नहीं कि उस योग्य चीन का सामर्थ्य नहीं है!

वस्तुतः बार बार दो चार किमी क़ब्ज़ा कर, वन-संभाग सहित शहरी नक्सलियों को भड़का कर व अंतरराज्यीय अशांति उत्पन्न कर चीन समग्र विश्व को ये संदेश देना चाहता है : “देखिए साहब, हम अब इतने शक्तिशाली हैं कि भारत जैसे युवाशक्ति वाले राष्ट्र को दबा सकते हैं.”

मग़र आज जिस तरह से भारत का संदेश भारत-चीन सीमा पर गूंजा है, उसकी गूंज दशकों तक नहीं तो अभी बरसों महीनों तक तो विश्वभर में रहेगी ही! पीएम का बेहतर निर्णय कि चीन को दिल्ली से उत्तर दिए जाने के स्थान पर उसकी सीमाओं से उत्तर दिया जाए. एक साहसिक क़दम, जो भारत भी वैसी निर्भयता को दिखाता है कि पीएम सबसे अगले फ़ौजी मोर्चे पर जा डटे!

साथ ही, “वॉरटाइम पीएम” की नई व सत्यता के निकट परिभाषा “पीएम इन वॉरटाइम” भी सदियों के लिए सुरक्षित हो गई. राष्ट्राध्यक्ष की ये उपलब्धि हमें ब्रिटेन से, हमें दो सौ वर्षों तक ग़ुलाम बनाने वाले साम्राज्यवादी राष्ट्र से, दो क़दम आगे निकल जाने का भान करवाती है.

जय हिन्द.