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17 अक्टूबर 1919 - "ख़लीफत दिन" :

खलीफत जेहाद और गांधी: भारत के इतिहास का एक काला पृष्ठ

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भारत में खलीफत जिहाद (1919-1924) के इस्लामी साम्राज्यवादी उद्देश्य के लिए आंदोलन को सक्रिय समर्थन देकर, जिसका भारतीय राष्ट्रीय हितों से दूर का भी संबंध न था, गांधी ने क्या पाया?

उनके अपने शब्दों में सुनिए। महादेव भाई के सामने 18 सितंबर 1924 को गांधी कहते हैं:

‘‘मेरी भूल? हाँ, मुझे दोषी कहा जा सकता है कि मैंने हिन्दुओं के साथ विश्वासघात किया। मैंने उनसे कहा था कि वे इस्लामी पवित्र स्थानों की रक्षा के लिए अपनी संपत्ति व जीवन मुसलमानों के हाथ में सौंप दें। और इस के बदले मुझे क्या मिला? कितने मंदिर अपवित्र किए गए? कितनी बहनें मेरे पास अपना दुःख लेकर आईं? जैसा मैं कल हकीमजी [अजमल खाँ] को कह रहा था, हिन्दू स्त्रियाँ मुसलमान गुंडों से मर्मांतक रूप से भयभीत हैं। मुझे ... का एक पत्र मिला है, मैं कैसे बताऊँ कि उस के छोटे बच्चों के साथ क्या दुराचार किया गया? अब मैं हिन्दुओं को कैसे कह सकता हूँ कि वह हर चीज को धैर्य पूर्वक स्वीकार करें? मैंने उन्हें भरोसा दिलाया था कि मुसलमानों के प्रति मैत्री का सुफल प्राप्त होगा। मैंने उन्हें कहा था कि वे बिना परिणामों की इच्छा के मुसलमानों को मित्र बनाने का प्रयास करें। उस भरोसे को पूरा करने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है। और फिर भी मैं आज भी हिन्दुओं से यही कहूँगा कि मारने की अपेक्षा मर जाएं।’’

इस भयावह अनुभव के बाद भी गांधी इस्लामी आक्रामकता के सामने हिन्दुओं के ससम्मान जीने का मार्ग नहीं खोज पाए। कायदे से, उस दारुण ‘भूल-स्वीकार’ के बाद उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए थी। वह नैतिक और देश-हितकारी होता। उन तमाम हिन्दू हत्याओं, बलात्कारों के जिम्मेदार गांधी थे, क्योंकि खलीफत-समर्थन में कांग्रेस को अकेले उन्होंने ही जिद कर झोंका था। उसके भयावह परिणाम के बाद उन्हें देशवासियों के साथ अपने नौसिखिए प्रयोग और करने का कोई अधिकार न था। लेकिन गांधी उसके बाद आगे चौबीस वर्ष, आजीवन, उसी तुष्टीकरण पर, वही कुफल पाते हुए, चलते रहे! मुस्लिम लीग का ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’, ‘डायरेक्ट एक्शन’, देश-विभाजन और लाखों-लाख हिन्दुओं का संहार एवं शरणार्थियों में बदल जाना। यह सब गांधीवाद की देन थी।

वस्तुतः इस्लाम संबंधी समस्याओं पर गांधी जैसे विचार व कर्म अज्ञान से पनपते हैं। गाँधीवाद पर विश्वास हिन्दुओं का आत्म-मुग्धकारी भ्रम है। मुसलमान इस भ्रम में कभी न पड़े। सहृदय, सज्जन मुसलमान भी। वे जानते हैं कि उन का मजहब सभी धर्मों की बराबरी जैसी बात मानना तो दूर, उसे ‘कुफ्र’, दंडनीय समझता है। अतः गांधीवाद, नेहरूवाद, सेक्यूलरवाद जैसे विचार सदैव एकतरफा, इसलिए हिन्दुओं के लिए घातक साबित हुए। कश्मीरी हिन्दुओं का विस्थापन इस का केवल नया चरण था।

गांधीगिरी न छोड़ने से आगे भी क्रमशः वही होगा।

इसी में मैं एक पोस्ट और जोड़ रहा हूँ।

#खिलाफत_आंदोलन

संसद में मोदी जी ने हामिद मियां पर तंज कसते हुए कहा था कि आपके परिवार के लोगों ने खिलाफत आंदोलन में भाग लिया था जिस पर हामिद मियां खींसे निपोरते रह गए, वही खिलाफत आंदोलन जिसका RSS और डॉ हेगड़ेवार ने विरोध किया था, तो आखिर क्या था खिलाफत आंदोलन?
जिसे सुनते ही हामिद मियां और कांग्रेस असहज हो उठी?
जानने के लिए पूरी पोस्ट को अंत तक अवश्य पढ़ें।

खिलाफत जानने से पहले आइए पहले जरा खलीफा को जान लें, खलीफा एक अरबी शब्द है जिसे अंग्रेज़ी में Caliph (खलीफ) या अरबी भाषा मे Khalifah (खलीफा) कहा जाता है, तो कौन होता है खलीफा? खलीफा मुसलमानों का वह धार्मिक शासक (सुल्तान) होता है खलीफा का काम होता है युद्ध कर के पूरे विश्व पर इस्लाम का निज़ाम कायम करना (जो कश्मीर में बुरहान वानी करना चाहता था), यानी इस्लाम की ऐसी हुकूमत कायम करना जिसमे इस्लामिक यानी शरीया कानून चले और जिसमे इस्लाम के अलावा किसी और धर्म की इजाज़त नही होती है, जितने हिस्से या राज्य पर खलीफा राज करता है उसे Caliphate यानी अरबी भाषा में Khilafa (खिलाफा) कहते हैं, खलीफा यानी इस्लामिक सुल्तान और खिलाफा यानी इस्लामिक राज्य ।
1919-22 के दौरान Turkey यानी तुर्की में ओटोमन वंश के आखिरी सुन्नी खलीफा अब्दुल हमीद-2 का खिलाफा यानी शासन चल रहा था जो कि जल्दी ही धराशाई होने वाला था, इस आखिरी इस्लामिक खिलाफा (शासन) को बचाने के लिए अब्दुल हमीद-2 ने जिहाद का आवाहन किया ताकि विश्व के मुसलमान एक हो कर इस आखिरी खिलाफा यानी इस्लामिक शासन को बचाने आगे आएं, पूरे विश्व मे इसकी कोई प्रतिक्रिया नही हुई सिवाए भारत के, भारत के अलावा एशिया का कोई भी दूसरा देश इस मुहिम का हिस्सा नही बना, लेकिन भारत के कुछ मुट्ठी भर मुसलमान इस मुहिम से जुड़ गए और लाखों किलोमीटर दूर सात समंदर पार तुर्की के खिलाफा यानी इस्लामिक शासन को बचाने और अंग्रेज़ों पर दबाव बनाने निकल पड़े, जबकि इस समय भारत खुद गुलाम था और अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, लेकिन अंतः 1922 में तुर्की से सुलतान के इस्लामिक शासन को उखाड़ फेंका गया और वहाँ सेक्युलर लोकतंत्र राज्य की स्थापना हुई और कट्टर मुसलमानों का पूरे विश्व पर राज करने का सपना टूट गया, इसी सपने को संजोए आजकल ISIS काम कर रहा है ।
भारत के चंद मुसलमानों ने अंग्रेज़ी हुकूमत पर दबाव बनाने के लिए बाकायदा एक आंदोलन खड़ा किया जिसका नाम था खिलाफा आंदोलन (Caliphate movement) अब क्योंकि अंग्रेज़ी में लिखे जाने पर इसका हिन्दी उच्चारण खलिफत होता है (अरबी में caliphate को khilafa=खिलाफा लिखते है) तो कांग्रेस ने बड़ी ही चतुराई से इसका नाम खिलाफत आंदोलन रख दिया ताकि देश की जनता को मूर्ख बनाया जा सके और लोगों को लगे कि यह खिलाफत आंदोलन अंग्रेज़ो के खिलाफ है, जबकि इसका असल मकसद purely religious यानी पूर्णतः धार्मिक था, इसका भारत की आज़ादी या उसके आंदोलन से कोई लेना देना नही था, कुछ समझ मे आया? कैसे शब्दों की बाज़ीगरी से जनता को मूर्ख बनाया जा रहा था, कैसे खलिफत को खिलाफत बताया जा रहा था, (ठीक वैसे ही जैसे Feroze Khan Ghandi (घांदी) को Feroze Gandhi (फ़िरोज़ गांधी) बना दिया गया) ।
उस समय भारत मे इतने पढ़े लिखे लोग और नेता नही थे कि गांधी नेहरू की इस चाल को समझ सकें, लेकिन इन सब के बीच कांग्रेस में एक पढ़ा लिखा शख्स मौजूद था जिसका नाम था डॉ. केशव बलिराम हेगड़ेवार, इस शख्स ने इस आंदोलन का जम कर विरोध किया क्योंकि खिलाफा सिर्फ तुर्की तक सीमित नही रहना था, इसका उद्देश्य तो पूरे विश्व पर इस्लाम की हुकूमत कायम करना था जिसमे गज़वा-ए-हिन्द यानी भारत भी शामिल था, डॉ हेगड़ेवार ने कांग्रेस के गांधी और नेहरू को बहुत समझने की कोशिश की लेकिन वे नही माने, अंतः डॉ हेगड़ेवार ने कांग्रेस के इस खिलाफत आंदोलन का विरोध किया और कांग्रेस छोड़ दी, तो अब समझ मे आया मित्रों की कांग्रेसी जो कहते हैं कि RSS ने आज़ादी के आंदोलन का विरोध किया था, तो वो असल मे किस आंदोलन का विरोध था?
आप डॉ हेगड़ेवार की जगह होते तो क्या करते? क्या आप भारत को गज़वा-ए-हिन्द यानी इस्लामिक देश बनते देखते? या फिर डॉ साहब की तरह इसका विरोध करते?
1919 में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ था और 1920 में डॉ हेगड़ेवार ने कांग्रेस छोड़ दी और सभी को इस आंदोलन के बारे में जागरूक किया कि इस आंदोलन का भारत की आज़ादी से कोई लेना देना नही है और यह एक इस्लामिक आंदोलन है, जिसका नतीजा यह हुआ कि यह आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप साबित हुआ औए 1922 में आखिरी इस्लामिक हुकूमत धराशाई हो गयी, मुस्लिम नेता इस से बौखला गए और मन ही मन हिन्दुओ और RSS को अपना दुश्मन मानने लगे और इसका बदला उन्होंने 1922-23 में केरल के मालाबार में हिन्दुओ पर हमला कर के लिया और असहाय अनभिज्ञ हिन्दुओ को बेरहमी से काटा गया हिन्दू लड़कियों की इज़्ज़त लूटी गई, जबकि इस आंदोलन का भारत या उसके पड़ोसी देशों तक से कोई लेना देना नही था ।
1923 के दंगों में गांधी ने हिन्दुओ को दोषी ठहराते हुए हिन्दुओ को कायर और बुजदिल कहा था, गांधी ने कहा हिन्दू अपनी कायरता के लिए मुसलमानों को दोषी ठहरा रहे हैं, अगर हिन्दू अपने जान माल की सुरक्षा नही कर सकता तो इसमें मुसलमानों का क्या दोष? हिन्दुओ की औरतों की इज़्ज़त लूटी जाती है तो इसमें हिन्दू दोषी है, कहा थे उसके रिश्तेदार जब उस लड़की की इज़्ज़त लूटी जा रही थी?
कुलमिला कर गांधी ने सारा दोष दंगा प्रभावित हिन्दुओ पर मढ़ दिया और कहा कि उन्हें हिन्दू होने पर शर्म आती है, जब हिन्दू कायर होगा तो मुसलमान उस पर अत्याचार करेगा ही ।
डॉ हेगड़ेवार को अब समझ आ चुका था कि सत्ता के भूखे भेड़िये भारत की जनता की बलि देने से नही चूकेंगे, इसलिए उन्होंने हिन्दुओ की रक्षा और उनको एकजुट करने के उद्देश्य से तत्काल एक नया संगठन बनाने का काम शुरू कर दिया और अंतः 1925 में RSS की स्थापना हुई।
आज अगर आप होली और दीवाली मानते हैं, आज अगर आप हिन्दू हैं तो सिर्फ उसी खिलाफत आंदोलन के विरोध और वीरों के वलिदान के कारण अन्यथा कब का गज़वा-ए-हिन्द हो चुका होता ।

#KhilafatAndolanAntiHinduAndolan
विवेकानन्द विनय