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॥ वराहमिहिर जी की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जल की खोज॥

॥वराहमिहिर जी ने आज से 1500 वर्ष पूर्वअन्तरिक्ष में मंगल ग्रह पर जल की
खोज की और पृथिवी पर भी सबसे पहले भूगर्भीय जल खोजने की पद्धति का
आविष्कार किया ॥

॥भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर जिसने सबसे पहले अन्तरिक्ष में मंगल ग्रह पर 1500 वर्ष पूर्व जल की खोज की और पृथिवी में भी भूमिगत जल की खोज करते हु्ए सर्वप्रथम इस भूवैज्ञानिक सिद्धान्त को स्थापित किया कि मनुष्यों के शरीर में जिस तरह नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार भूमि के नीचे भी जलधारा को प्रवाहित करने वाली शिराएं होती हैं। वराहमिहिर का जलविज्ञान एकांगी रूप से केवल भूगर्भीय जल पर आधारित सैद्धान्तिक विज्ञान ही नहीं है बल्कि वर्षाकालीन अन्तरिक्षगत मेघों के पर्यवेक्षण, मौसमविज्ञान सम्बन्धी जलवायु परीक्षण तथा भूगर्भीय जल की खोज पर आधारित ‘औब्जर्वेटरी’और प्रायोगिक विज्ञान भी है॥

(12मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’, हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ पर ग्यारहवां लेख “वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जल की खोज&rdquo

मैंने अपनी पिछली पोस्ट ‘भारतीय जलविज्ञान - 7’ में बताया है कि वैदिक कालीन मंत्रद्रष्टा ऋषियों की जलविज्ञान सम्बन्धी मान्यताओं को छठी शताब्दी ई. में हुए एक महान् ज्योतिषाचार्य‚ खगोलशास्त्री तथा जलवैज्ञानिक वराहमिहिर जी ने अपने ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में एक सुव्यवस्थित वैज्ञानिक पद्धति से प्रस्तुत किया। वराहमिहिर ने अपने युग में प्रचलित जलविज्ञान की मान्यताओं का संग्रहण करते हुए जलविज्ञान का विवेचन दो प्रकार से किया किया। इनमें से एक प्रकार का जल अन्तरिक्षगत जल है जो समुद्र आदि से वाष्पीभूत होकर आकाश में बादलों के रूप में संचयित होता है और दूसरे प्रकार का जल बादलों से बरस कर भूमिगत जल बन जाता है।आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अन्तरिक्षगत जल का विवेचन ‘मौसमविज्ञान’ के अन्तर्गत किया जाता है तो भूमिगत जल का विवेचन ‘जलविज्ञान’ के धरातल पर होता है। वराहमिहिर जी ने भी आधुनिक विज्ञान के समान जल प्राप्ति के इन दो आयामों का विवेचन दो अलग अलग शाखाओं के अन्तर्गत किया है। ‘बृहत्संहिता’ के 21वें‚ 22वें और 23वें अध्यायों में वराहमिहिर ने मेघों से प्राप्त होने वाले अन्तरिक्ष जल की चर्चा की है और 54वें अध्याय में ‘दकार्गलम्’ के नाम से भूमिगत जल का शास्त्रीय विवेचन किया है।
वराहमिहिर जी का जलविज्ञान एकांगी रूप से केवल भूस्तरीय जल अथवा भूगर्भीय जल पर आधारित सैद्धान्तिक विज्ञान ही नहीं बल्कि वर्षाकालीन अन्तरिक्षगत मेघों के पर्यवेक्षण और मौसमविज्ञान सम्बन्धी जलवायु परीक्षण पर आधारित प्रायोगिक विज्ञान भी है। वराहमिहिर जी का मत है कि बलदेव आदि प्राचीन ऋतुवैज्ञानिकों की मान्यता के अनुसार मौसम वैज्ञानिकों द्वारा आगामी मानसूनों के आने की भविष्यवाणी ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद होने वाली ग्रह–नक्षत्रों की स्थिति तथा जलवायु परीक्षण के आधार पर की जानी चाहिए -

“मेघोद्भवं प्रथममेव मया प्रदिष्टं
ज्येष्ठामतीत्य बलदेवमतादि दृष्ट्वा।
भौमं दकार्गलमिदं कथितं द्वितीयं
सम्यग्वराहमिहिरेण मुनिप्रसादात्।।” - बृहत्संहिता‚ 54.125

मानसूनी वर्षा के बारे में वराहमिहिर की मान्यता है कि बादलों के ‘वृष्टिगर्भ’ को धारण करने की अवधि साढ़े छह महीने यानी 195 दिनों की होती है। बादल चन्द्रमा के जिस नक्षत्र में गर्भ धारण करते हैं ठीक 195 दिनों के बाद उसी नक्षत्र में वर्षा के रूप में बादलों का प्रसव होता है -

“यन्नक्षत्रमुपगते गर्भश्चन्द्रे भवेत् स चन्द्रवशात्।
पंचनवते दिनशते तत्रैव प्रसवमायाति।।” - बृहत्संहिता‚ 21.7

वर्षा से प्राप्त होने वाले अन्तरिक्ष जल को ही वराहमिहिर जी ने भूस्तरीय तथा भूगर्भीय जल का मूल कारण माना है। किन्तु समय पर वर्षा न होना तथा बादलों का फट जाना इस स्थिति का द्योतक है कि बादलों का समय से पहले ही गर्भस्राव हो गया है। वराहमिहिर के अनुसार यदि बादलों के गर्भधारण के बाद आंधी‚ चक्रवाती तूफान‚ उल्कापात‚ दिग्दाह‚ भूकम्प आदि प्राकृतिक उत्पात के लक्षण प्रकट हों तो निश्चित कालावधि में मानसूनी वर्षा की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए तथा यह मान लेना चाहिए कि बादलों का गर्भस्राव हो चुका है -

“गर्भोपघातलिङ्गान्युल्काशनिपांसुपातदिग्दाहाः।
क्षितिकम्पस्वपुरकीलककेतुग्रहयुद्धनिर्घाताः।।” - बृहत्संहिता‚ 21.25

भूमिगत जलविज्ञान का विस्तृत विवेचन वराहमिहिर जी ने ‘बृहत्संहिता के ‘दकार्गल’ नामक 54वें अध्याय में किया है। ‘दकार्गल’ वस्तुतः ‘उदकार्गल’ के लिए प्रयुक्त शब्द है। ^उदक’ जल को कहते हैं ‘अर्गल’ का अर्थ है रुकावट अर्थात् जल की प्राप्ति में होने वाली बाधा। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या या शास्त्र से भूमिगत जल की बाधाओं का निराकरण किया जा सके उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान विशेष को ‘दकार्गल’ कहते हैं -

“धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दकार्गलं येन जलोपलब्धिः।” - बृहत्संहिता‚54.1
वराहमिहिर कहते हैं कि आकाश से केवल एक ही स्वाद वाला जल पृथिवी पर गिरता है किन्तु वही जल भूमि की विशेषता से अनेक रंग और स्वाद वाला हो जाता है। इसलिए जल की परीक्षा करनी हो तो पहले भूमि के रंग‚ रस और स्वाद की जांच करनी चाहिए -
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“एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधाविशेषात्।
नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परीक्ष्य क्षितितुल्यमेव।।” - बृहत्संहिता‚54.2

॥भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त॥
जलविज्ञान के क्षेत्र में वराहमिहिर जी ने सर्वप्रथम इस भूवैज्ञानिक सिद्धान्त की स्थापना की है कि मनुष्यों के शरीर में जिस तरह नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार भूमि के नीचे भी जलधारा को प्रवाहित करने वाली शिराएं होती हैं -

“पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्था।” - बृहत्संहिता‚ 54.1

पूर्व–पश्चिम‚ उत्तर–दक्षिण आदि आठ दिशाओं के स्वामी देवता हैं – इन्द्र‚ अग्नि‚ यम‚निऋर्ति‚ वरुण‚वायु‚सोम‚ और ईशान देव। उन्हीं दिशा–स्वामियों के नाम से प्रसिद्ध ‘ऐन्द्री’‚ ‘आग्नेयी’‚ ‘याम्या’ आदि आठ प्रकार की भूमिगत मुख्य जलशिराएं भी होती हैं तथा इनके मध्य में एक बड़ी जल की धारा होती है जिसे ‘महाशिरा’कहा जाता है। इन प्रमुख जलशिराओं से जुड़ी हुई भूमिगत जल की अन्य सैकड़ों जलशिराएं होती हैं जिनकी सहायता से भूमि के गर्भ में जल की सक्रियता बनी रहती है -

“पुरुहूतानलमयनिऋर्तिवरुणपवनेन्दुशङ्करा देवाः।
विज्ञातव्याः क्रमशः प्राच्याद्यानां दिशां पतयः।।
दिक्पतिसंज्ञाश्च शिरा नवमी मध्ये महाशिरानाम्नी।
एताभ्योऽन्याः शतशो विनिसृता नामभिः प्रथिताः।।” - बृहत्संहिता‚ 54.3-4

वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता के ‘दकार्गल नामक 54वें अध्याय में क्षेत्र, देश आदि के अनुसार विभिन्न वृक्षों-वनस्पतियों,जलीय जीवों, मिट्टी के रंग, पथरीली जल चट्ठानों आदि की निशानदेही करते हुए भूगर्भस्थ जल की उपलब्धि हेतु पूर्वानुमान पद्धतियों का वैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण किया है। यहां यह भी बताया गया कि किस स्थिति में कितनी गहराई पर जल हो सकता है। फिर अपेय जल को शुद्ध कर कैसे पेय बनाया जाय, यह विधि भी बताई गई है।

वराहमिहिर जी के इस विवरणात्मक ज्ञान से सूखे तथा अकालपीड़ित प्रदेशों में भी भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति का प्रयास किया जा सकता है। वराहमिहिर ने अपने समय में प्रचलित लोकविश्वासों और जलवैज्ञानिक मान्यताओं की परीक्षा करके भावी जनता के लिए मार्गदर्शन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों के लोग भूगर्भस्थ जल का स्वयं परीक्षण कर सकें और तदनुसार कुएं, बावड़ी, तालाब आदि खोदकर जल प्राप्त करने का प्रयास कर सकें साथ ही उन उपायों से प्राणियों तथा फसलों के लिए भी पानी उपलब्ध करा सकें।

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