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पद्मनाभ दिव्यदेशम
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“विष्णुसहस्रनाम” एक व्यंजना मात्र है, उनके अनंत नामों को एक सीमित सूची में पिरोने का श्रद्धानत मानवीय उद्योग, जोकि महात्मा भीष्म ने अपने पौत्र युधिष्ठिर के लिए किया था। सूची के होने का तात्पर्य वैसा नहीं कि “उनके” मात्र एक सहस्र नाम हैं। कदापि नहीं!

किंतु फिर भी, ये सूची मानवों के संतोष का कारण अवश्य है कि चलिए “उनके” एक सहस्र नामों की सूची तो उपलब्ध ही है। ऐसी श्रमसाध्य सूची में कुल पाँच बार “नाभि-प्रकरण” का अवसर बना है :

श्लोक उन्नीस, श्लोक चौंतीस (दो बार), श्लोक इक्यावन व श्लोक अठानवे।

इनमें कुल तीन बार “पद्मनाभ” की भाँति, एक एक बार “हिरण्यनाभ” (ब्रह्मा को नाभि से प्रकट करने वाले) और “रत्ननाभ” (जिनकी नाभि सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ रत्न हो) की भाँति।

कई बार कुछ अतिशय तर्कवान बुद्धिपिशाच इस “पद्मनाभ” पुनरावृत्ति को महाभारत का क्षेपक कहकर उपहास करने का यत्न करते हैं, इस तथ्य से अविदित कि तीनों नामों की पृथक् पृथक् व्याख्या है।

श्लोक उन्नीस के “पद्मनाभ” का तात्पर्य है, वो जिनकी नाभि से कमल पुष्प उगता है। श्लोक चौंतीस के “पद्मनाभ” की अर्थ है, वो जिनकी नाभि कमल पुष्प के समान है। परंतु तीसरे “पद्मनाभ” की व्याख्या किंचित गाढ़ी है, प्रभु की भक्तवत्सलता को दर्शाती है।

श्लोक इक्यावन के “पद्मनाभ” वे हैं, जो अपने भक्तों के कमल पुष्प जैसे हृदय के केंद्र (नाभि) में विराजमान हैं, ऐसे पद्मनाभ!

यों तो महात्मा भीष्म की काव्यात्मकता का नाभि-प्रकरण कभी संपन्न नहीं हो सकता, किंतु उसे कहने के मानवीय सामर्थ्य की सीमाएँ हैं। ऐन इसी संक्षिप्त वर्णन से ज्ञातव्य हो कि दक्षिणभूमि के अंतिम तटीय शहर में विराजित महाविष्णु पहले “पद्मनाभ” का मूर्तरूप हैं, वे जिनकी नाभि से कमल पुष्प उगता है।

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“दिव्यदेशम” तमिल भाषा के प्राच्य धार्मिक साहित्य की बड़ी मान्यताओं में से है!

इस मान्यता का उद्गम “दिव्यप्रबंधम” से हुआ है। इसे तमिल भाषा में संगृहीत वैष्णव-वेद कह दिया जाए, तो कदाचित् आपत्ति न होगी। इसमें कुल बारह वैष्णव संतों द्वारा रचित चार हज़ार पद्य रचनाएँ हैं। वे श्लोक हो सकती हैं, मंत्र हो सकती है, दोहा चौपाई सोरठा आदि छंद हो सकती हैं।

कुलज़मा चार हज़ार होने के कारण इन्हें “नालायिर दिव्यप्रबंधम” कहा गया है। (तमिल भाषा में चार हज़ार की संख्या को “नालायिर” कहा जाता है!)

इस “दिव्यप्रबंधम” में, जितने विष्णुमंदिरों का उल्लेख हुआ है, उन्हें “दिव्यदेशम” कहा गया। इनकी कुल संख्या एक सौ आठ है, जिनमें से कुल एक सौ छः इस पृथ्वी पर व शेष दो ब्रह्मांड में निश्चित किए गए हैं। भारत में कुल एक सौ पाँच हैं, नेपाल में एक : “मुक्तिनाथ शालिग्राम”।

उत्तर भारत के हिस्से आठ “दिव्यदेशम” आते हैं : उत्तर प्रदेश में चार, उत्तराखंड में तीन, गुजरात में एक। सुखद है कि अयोध्या जी की श्रीरामजन्मभूमि को तमिल “दिव्यप्रबंधम” ने “दिव्यदेशम” माना है। चकित होता हूँ कि कौन हैं वे प्रपंची लोग, जो उत्तर-दक्षिण की आर्य-अनार्य वैमनस्यता को खाद-पानी देते हैं।

सर्वाधिक “दिव्यदेशम” तमिलनाडु में हैं, पिचासी। केरल में ग्यारह और आंध्रा में दो! इन्हीं ग्यारह में से एक “पद्मनाभास्वामी” का मंदिर है, जनपद तिरुवनंतपुरम।

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“अनंतपद्मनाभास्वामी” का मंदिर द्रविड़ मंदिर स्थापत्य की शैली के आधार पर निर्मित हुआ है!

कथाएँ प्रचलित हैं कि शेषनाग पर शयन करते महाविष्णु की “पद्मनाभ” मूरत का मूलस्थान केरल के ही कासरगोड जनपद में स्थिति एकमात्र झील मंदिर है, जहां मुख्य आकर्षण मंदिर का मुख्य रक्षक एक शाकाहारी मगरमच्छ है। वहाँ से इस मूरत को “मार्तंड वर्मा” लेकर आए थे।

चूँकि इस मंदिर में निर्माण में “चेर” साम्राज्य का प्रत्यक्ष जुड़ाव मिलता है, ज़ाहिर है कि इसकी स्थापत्य कला में “चेर” विशेषताएँ भी ख़ूब रची-बसी हैं। जैसे कि ऊँची दीवारों के कांधों पर गढ़ा गया गोपुरम्, बनावट में तिरुवत्तर के “आदिकेशव” मंदिर की हूबहू प्रतिकृति।

“त्रावणकोर” राजवंश “चेर” राजवंश की शाखा-प्रशाखा है! चेरों को यों ही नहीं केरल-पुत्र कहा गया, उनका इतिहास दो हज़ार साल पुराना है। सो, “त्रावणकोर” राजवंश के आप्त-छोर की खोज पर एक पृथक् लेख फिर कभी!

वर्तमान परिदृश्य का इतिहास सन् सत्रह सौ पचास के पौष-माघ की संधि में दबा मिल जाता है, जब महाराज त्रावणकोर “मार्तंड वर्मा” ने राज्य को “पद्मनाभ” मंदिर को सौंप दिया और स्वयं व शेष सभी उत्तरवर्तियों के लिए “पद्मनाभ दास” की उपाधि धारण कर ली।

आज भी महाराज त्रावणकोर यही उपाधि धारण करते हैं। उनका पूरा नाम है : श्री पद्मनाभ दास श्रीमूलं रामा वर्मा। उनके पुत्र भी यही धारण करेंगे और उनके पौत्र प्रपौत्र भी।

आज जो सम्मान “त्रावणकोर” राजवंश को प्राप्त हो रहा है, वो औचक नहीं है, अनायास नहीं है, किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित नहीं है, बल्कि सत्य ये है कि केरल-पुत्रों की ऐसी महान “चेर” परम्परा के समग्र राज्य को, महाविष्णु को समर्पित कर देने वाले राजपारिवार के सम्मुख, कैसे न समूचा भारत नतशिर हो जाए।

अनंत प्रभु से कामना है कि मंदिर “अनंतपद्मनाभास्वामी” मंदिर की सेवायतों में “त्रावणकोर” राजवंश की पुनर्वापसी पूरे विश्व के लिए शुभ हो!

अस्तु।

साभार
✍️ Yogi Anurag