ये है राजस्थान का किराडू मंदिर। जब भी मैं प्राचीन काल की ऐसी स्थापत्य कला को देखता हूँ तो आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। सोंचता हूँ कि तब के लोग कुछ भी बनाकर चले गए हैं- कुछ भी माने जो मन आया वो- जो मन आया अर्थात कठिन से कठिन और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट संरचना। इस मंदिर के ऊपरी भाग को देखिये तो लगता है जैसे उस भाग में कितने ही छोटे-छोटे मंदिर बना दिये गए हैं, और ऊपर मंदिरों का छोटा सा नगर बसा हुआ है। मुझे नही पता कि वास्तव में ऐसा ही दिखलाने का प्रयास किया गया है अथवा नही, किन्तु यदि किया गया है तो फिर कहना ही क्या ! उस सोंच को मैं प्रणम्य मानता हूँ। इसकी दीवारों पर जैसी सूक्ष्म- छोटी- बड़ी कलाकृतियां उभरी हुई हैं, एक निश्चित आकार में ढाली गयी हैं, उसे हम साधारण कार्य का परिणाम नही कह सकते। अरे कोई कागज तो है नही, कि यहाँ से काटे वहाँ से काटे और उसे विस्तारित कर एक रूप और आकार में प्रस्तुत कर दिए ! यहाँ से मोड़े वहाँ से मोड़े और नाव बना दिये ! या कोई चित्रकारी की पुस्तक भी तो नही है कि जहाँ इच्छानुसार पेंसिल घुमा दिए और एक मोहक चित्र अंकित कर दिए ! पत्थर है वो पत्थर ! उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार ! वो भी एक नही हजार बार ! कैसे करे कोई स्वीकार ! अंतर्मन में होती है तकरार !
अब क्या ही वर्णन किया जाए ऐसी संरचनाओं का ! इसके लिए तो उस काल के कवियों का ही आना ठीक रहेगा, जिनकी उंगलियों को भी व्याकरण और शब्दकोष कंठस्थ रहते थे। इसलिए मुझे तो ईर्ष्या होती है, क्योंकि मेरे पास उनके जैसी वर्णन की कला नही है।
भारत में किसी सुंदरी की प्रशंसा में गाया गया एक सुप्रिसद्ध गीत है-"कुदरत ने बनाया होगा फुरसत से तुझे मेरे यार", जिसका नाम पता सबको ही ज्ञात होगा। ठीक इसी प्रकार ऐसी संरचनाएं भी रातों रात निर्मित नही होती। इन्हें भी छुट्टी लेकर लंबी समयावधि में तैयार किया गया होता है। मुझे विश्वास है कि इसके निर्माण में भी वर्षों लगे होंगे। अंतर बस इतना है कि इसे कुदरत ने नही मनुष्यों ने बनाया है। तब एक एक इंच, एक एक सेमी में अपनी क्षमता और कार्यकुशलता को झोंक दिया गया होगा। इस प्रकार की संरचनाएं भारत की अमूल्य धरोहर हैं, जिसकी अमिट छाप इनके मिट्टी में मिलने से पहले धूमिल नही होंगी। खंडहर के रूप में खड़ा इनका एक अंश भी उस स्वर्णिम काल की गाथा को सदा दोहराता रहेगा, और अपने शिल्प सौंदर्य से सबको चकित करता रहेगा।
आपको यह भी पता हो कि प्राचीन काल मे निर्मित इस प्रकार के स्थल आज पर्यटन का केंद्र हैं, और अपनी अपुष्ट, दुर्बल, असमर्थ और स्वयं को जैसे तैसे संभाल सकने वाले स्तम्भों, दीवारों पर आज भी भारत की अर्थव्यवस्था का भार उठाये हुए हैं। स्वयं बेरंग और आभाहीन होकर भी ये भारतीय अर्थव्यवस्था को चमक प्रदान करने में अपना योगदान दे रहे हैं।
गर्व कीजिये।