#स्वाहा_स्वधा_नमोस्तुते
मानव का शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ है। जिसकी वजह से हमें जीवन मिलता है.... जीवन जीने की कला बुद्धि का विषय है ,पर यह बुद्धि विद्या के चयन को प्रेरित करती है ।उत्स्फूर्त वांग्मय बुद्धि ; जीवन में प्रकाश डालती है ,तब यह विद्या व्यक्त होती है।
विद्या प्राप्त कर लेना जीवन में सहज नहीं होता है ।उसके लिए तैयारी करनी पड़ती है ।उसके लिए हमें एक मार्गदर्शक ढूंढना पड़ता है ।यहां पर उदाहरण के तौर पर हम भगवान वेद व्यास को मार्गदर्शक ले सकते हैं, क्योंकि वह जीवन के भाष्यकार हैं । शेक्सपियर भाष्यकार नहीं हो सकते ,उन्होंने सदा अंधेरा दिखाया है।
उनके ग्रे करैक्टर ;उनके चरित्र अनुकरणीय भी नहीं है। उनका लेखन अवश्य प्रभावी है ,पर जीवन की समझाने की कला उनमें नहीं । कालिदास के सारे चरित्र स्वच्छ छवि दिखाई देते हैं ,कहीं कोई कमी नहीं । मानो वह मानव नहीं एक दिव्य जगत के निष्कलुष महामानव हो।
एक कवि अधोपतन का दिया दिखाता है ,और दूसरा एक ध्येय के साथ चलता है। महान दोनों हैं ;पर जीवन की भाषा समझाना दोनों के बस की बात नहीं ।
#जीवन क्या है ?????यह अनेक रूपों वाली #सृङका है। जिसका अर्थ है -शब्दावली/ शब्द माला अकुत्सित गति का ज्ञान की। जो सदा स्वीकार्य है ।
जीवन को मिले समस्त वरदानों में कुछ विद्याएं अनूठा उपहार है । जिसमें एक विद्या है "#अग्निविद्या " , जिसके माध्यम से जीवन को समझा जा सकता है ।इस विद्या में एक विशेष मंत्र में अग्नि का वर्णन है "#लोकदिमग्निम् " । इसके अनुसार जगत में प्रथम शरीर अग्नि को मिला है। यह मान्यता तत्वज्ञान में भी और पुराणों में भी है।
अग्नि सब को जलाकर भस्म कर सकता है ।आकाश खुला है ;व्यापक है ;उसे शरीर नहीं है ......साथ ही वायु को भी शरीर नहीं है, इसीलिए पंचमहाभूतों में पहला स्थान अग्नि को मिला ।
जीवन के लिए अग्नि आवश्यक है ।सभी जगह अग्नि हैं, मानव शरीर के भीतर अग्नि है बाहर ।खाना पकाने के लिए अग्नि चाहिए ,तो खाना खाने के बाद पचाने के लिए भी जठराग्नि चाहिए ।
जैसे अग्नि सब जलाती है, सब भस्म करती है ,उसी प्रकार अग्नि विद्या विशेष प्रकार का जीवन जीने के तैयार होने के बाद ही व्यक्ति को समझ में आती है। जिसने जीवन का भाष्य आत्मसात किया, वही उसे समझ सकता है ।
अग्नि विद्या में दो शक्तियां हैं #स्वाहाशक्ति और #स्वधाशक्ति ।जब व्यक्ति के पास अग्नि विद्या आती है ,तो उसमें से स्वाहाशक्ति और स्वधाशक्ति का निर्माण होता है।
#स्वाहा अर्थात #आत्महवन और #स्वधा अर्थात #आत्माधारणा की शक्ति ।स्वयं की समिधा समर्पित करने की तैयारी ही आत्म हवन होता है .....और आत्म धारणा अर्थात दूसरे की मदद ना स्वीकारते हुए (इसमें मदद का अर्थ साधन से नहीं है भोग सुविधाओं से है ) स्वयं के पैरों पर खड़े रहने की तैयारी ।
विद्वान में स्वधाशक्ति होनी चाहिए, स्वाहुत यज्ञ के जरिए स्वयं को सक्षम बनाना। उसके परिणाम स्वरुप ही जो तेजस्विता उत्पन्न होती है वह है स्वधा शक्ति । पराशक्ति हमेशा इन्हीं शक्तियों का आह्वान से अवतरित या प्रकट होती।
अग्नि के पास स्वाहा शक्ति है ,स्वधा शक्ति है ,और इसी वजह से उसके पास एक प्रभा शक्ति है। व्यक्ति को जीवन में उसी की तरह होना चाहिए ;जैसे अग्नि। मनुष्य की भक्ति भी लाल होना चाहिए।
विचार रखना चाहिए कि "भगवान क्षमाशील है".... हमारी गति हमारा प्रभाव हो "हे भगवान मुझे क्षमा करो "इस सोच तक ही नहीं सीमित रहना चाहिए ।यह प्रथम सीढ़ी है ।जिस दिन हम स्वाहा स्वधा को स्वयं में उतार लेंगे ,उस दिन हम कहेंगे .....हमारा विचार होगा ...."भगवान मुझे क्षमा मत करना ,अगर मैंने गलती की है तो ,मुझे सजा देना"।
ऐसी हिम्मत सिर्फ तत्वज्ञान से आती है ।ऐसी तेजस्वी वृत्ति जब तक जीवन में नहीं आती ,तब तक आत्मज्ञान पूर्ण नहीं होता है। जब हम जीवन में सर्वस्व स्वाहा करने के लिए तैयार होते हैं ,तभी ऐसी वृत्ति हमारे सामने आती है ,और स्वाहा और स्वधा के बाद ही हममें एक प्रभामंडल जागृत होता है ,जो कि अग्नि स्वरुप होता है। जो कि वास्तविक जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।व्यक्ति में स्वाहा शक्ति कैसे आती है ?सर्वस्व हवन करने की शक्ति कैसे आती है ?यह आवश्यक है की पूर्ण शास्त्रीय नीतियों से जब हवन होगा ,तभी वह मान्य होगा। अशास्त्री रीति से करने वाले हवन, सिर्फ भस्म करते हैं ।एक सुचारु नियमानुसार मार्ग चुनकर ही स्वाहा स्वधा और प्रभा को स्वयं में जाग्रत कर सकते हैं ।जब स्वाहा शक्ति बढ़ती है ,यह शक्ति बढ़ती है ,और प्रभा शक्ति स्वयं जाग्रत हो जाती है।
इसके लिए यह आवश्यक है कि हम सुनने ,देखने की कला भी विकसित करें। "You must be eyes and ear only" ..... हमारे दिमाग में कई वैचारिक अन्योन्य क्रिया चलती रहती हैं। हम देखते हैं ,दूसरी तरफ सुनते हैं ।दोनों मिलकर प्रभावी विचार होते हैं ,और जब यह प्रभावी होते हैं ,तभी इस तरह की विद्याएं पूर्ण रूप में आत्मसात कर पाते हैं ।सुनना - देखना एक पूजन है,जिसमें व्याभिचार की जगह नहीं ।हमारे पास कान है, सिर्फ इसलिए हम सुन सकते हैं..... यह सोचना हमारी सिर्फ भूल हो सकती है। क्योंकि जब हम एक समूह के रूप में होते हैं ,तो हम जैसे कई लोग उस संवेदी अंग का प्रयोग करते हैं ।परंतु सिर्फ प्रज्ञा ही होती है जो हमें समझाती है कि ,जो हमने सुना उसका निरूपण कैसे करना है?? उसको जीवन में कैसे आत्मसात करना है ?
प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका अलग होती है ...हम जो सुनते हैं उसे संभालना हर किसी के बस की बात नहीं है ।हम जो सोचते हैं, उसका क्रियान्वन करना आसान नहीं है ।इसी वजह से आवश्यक है ,जीवन में ज्यादा से ज्यादा स्वधा को स्थान देना ताकि प्रभा का निर्माण करें ।जो जीवन यज्ञ को अग्नि सा सामर्थ्य दे, जीवन के उद्देश्य को पूर्ण सार्थकता दे।
शिवोहम
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