एक लड़की को आये दिन सरेराह ईव-टीज़िंग से गुज़रना पड़ता है, वह तंग आकर इसकी शिकायत दर्ज कराती है, होता कुछ नहीं है।
ऐसी ईव-टीज़िंग और बद्तमीज़ियों पर बत्तीसों बार मैंने ख़ुद शिकायत की और बदले में मॉरल लेक्चर के अलावा कुछ ख़ास न मिला। एक बार तो एक महिला इंस्पेक्टर (महिला बताना इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि उनसे संवेदनशीलता की उम्मीद अधिक थी) ने मुझसे ही बदले में ऐसे-ऐसे सवाल किये कि मैं परेशान हो गयी। 19 वर्षीय लड़की जब ऐसे मनचलों के ख़िलाफ़ 100 नंबर डायल करती है तो उसे हौसला देने की ज़रूरत होती है, घटिया सवालों की नहीं। मुझे बाद में उन्हें बताना पड़ा कि डैडी पुलिस में हैं और अचानक ही उनका रवैया बदल गया। मैं कॉलेज पहुंचकर भी सोचती रही कि सबके पिता पुलिस में नहीं हैं, सब मुझ जितनी बोल्ड भी नहीं हैं तो क्या सभी परेशान लड़कियों को ऐसे सवालों में घेरा जाना चाहिए?
फिर याद आते हैं इंस्पेक्टर विनीत जैसे लोग जो पुलिस स्टेशन में बैठकर मेरी बात ज़हीनता से सुन सके थे और कई दिनों तक फ़ॉलोअप लेते रहे, हॉस्टल एरिया में भी आते रहे। आसपास के लोगों को लगने लगा था कि मेरे रिश्तेदार हैं, थे वो कुछ भी नहीं एक कर्तव्यपरायण वर्दीधारी के अलावा।
सबके हिस्से इंस्पेक्टर विनीत नहीं आते, अनगिनतों को मिलते हैं वे पुलिसकर्मी जो छेड़छाड़ को तब गंभीर मानते हैं जब चाकू-छूरियां चल जाएं, बलात्कार हो जाए, तेज़ाब फ़ेंक दिया जाए। उससे पहले वो रफ़ा-दफ़ा करते रहते हैं।
इन पुलिसकर्मियों की अनदेखी ने ग़ाज़ियाबाद के पत्रकार विक्रम जोशी की जान ले ली।
उनकी भांजी ऐसे ही मनचलों से एक वर्ष से परेशान थी जो सड़क को अपने बाप की जागीर समझते हैं। एक वर्ष पहले शिकायत दर्ज़ करायी थी जिसका निष्कर्ष शून्य था। भांजी को लगातार परेशान देखकर विक्रम जोशी ने 16 जुलाई, 2020 को इसकी शिकायत दर्ज़ करायी। उसके बाद से लगातार वे आवारा गुंडे उनपर शिकायत वापस लेने का दबाव बनाते रहे। न मानने पर दिन-दहाड़े क़रीब आधा दर्जन गुंडों ने आकर उन्हें पीटा और सिर में गोली मार दी, यह सब उनकी बच्चियों के सामने हुआ। वे सड़क पर गिरे, सीसीटीवी फुटेज में पूरी घटना क़ैद हुई और पुलिस को होश आ गया।
थाना प्रभारी निलंबित हैं और विक्रम आज सुबह तक अस्पताल में थे, आज उनकी मौत हो गयी। इस क्रम में 8 लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है।
विक्रम जोशी को क्यों जान गंवानी पड़ी? उत्पीड़न के ख़िलाफ़ शिकायत करना कबसे जुर्म होने लगा? उन्होंने अपने साहस की क़ीमत चुकायी है! पुलिस की लापरवाही और अनदेखी की क़ीमत चुकायी है! उन तमाम लोगों के मिस-पेरेंटिंग की क़ीमत चुकायी है जो हर हाल में अपने कुलदीपक, अपने राज-दुलारे के समर्थन में उतरते रहते हैं। उन अभिभावकों की ग़लती की क़ीमत चुकायी है जो सवालों की गठरी सिर्फ़ बेटियों के सामने रखते हैं और बेटे को लेकर निर्भीक रहते हैं क्योंकि वह ''बड़ा हो गया है''। उनका यह बड़ा बेटा सड़क पर किसी लड़की की ज़िंदगी दुश्वार करता है लेकिन नैतिक शिक्षा की घुट्टी की एक भी ख़ुराक़ उसे नहीं मिलेगी।
ऐसी घटनाओं के बाद कितनी लड़कियां जाएंगी थाने की दहलीज़ पर अपनी शिकायत लेकर? कितने अभिभावक हिम्मत जुटा सकेंगे ग़लत को ग़लत कहते रहने की? ग़लत का विरोध करना सामान्यतम और मौलिक होना था, इसे दुर्लभ और दुष्कर बना दिया है समूचे सिस्टम ने।
पत्रकारों की ज़िंदगी की वैसे भी कोई क़ीमत नहीं होती, आये दिन मरते हैं और कोई पूछने तक नहीं आता। इनके लिए नहीं हैं कोई सरकारी योजनाएं, नहीं दरकता है किसी दल का दिल, ये जब-जब निर्भीक होते हैं तो सबको ख़तरा होता है, सिस्टम को भी और फिर मारे जाते हैं यूं ही। लेकिन इस बार एक अभिभावक मरा है, शिकायत के बदले में उसपर दागी गयी है गोली।
विरोध करना यहां जुर्म हो चला है, सिस्टम की शिकायत सिस्टम से ही कोई कैसे करे? और इन बद्तमीज़ मनचलों की शिकायत कहां सुनी जाएगी जो लड़कियों का सर्वस्व निर्धारण करने को अपना अधिकार समझते हैं? और कितने युग खप जाएंगे इन्हें यह समझाने को कि सड़क, समाज, धरा और आकाश हमारा भी उतना ही है जितना इनका और हम कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं हैं जहां किसी की हुकूमत चले और हमारा वर्तमान-भूत-भविष्य यह हम तय करेंगे, वो नहीं, ब्रह्माण्ड में कोई भी नहीं।