जीवक की गणना भारत के प्रख्यात वैद्यों में होती है । वे भगवान बुद्ध के व्यक्तिगत चिकित्सक थे ।
जीवक जब तक्षशिला के गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूर्ण करने को हुए तब उनके आचार्य ने उन्हें एक फावड़ा दिया कि विश्वविद्यालय परिसर के एक योजन परिधि से उन पौधों को खोद के हटा दो जिनका कोई औषधीय उपयोग न हो । जीवक कई दिन बाद लौट कर आये और गुरु जी के समक्ष निराश होकर बोले कि मुझे ऐसा कोई पौधा नहीं मिला जिसका औषधीय उपयोग न हो । आचार्य ने कहा जाओ अब तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई।
जीवक अनाथ थे और कूड़े के ढेर पर पाये गये थे । कुछ सूत्र उन्हें आम्रपाली का पुत्र भी बताते हैं । तक्षशिला में उनके पास गुरुदक्षिणा देने के लिये भी भी कुछ न था , आचार्य ने ही उन्हे राजगृह तक जाने का पाथेय दिया । रास्ते में एक सेठ की पत्नी के सिर में अधकपारी का पुराना दर्द था जिसे उन्होंने कुछ जड़ी बूटी घी में गर्म करके नस्य दिया और कुछ ही दिन में ठीक कर दिया । आगे काशी में एक रोगी की खोपड़ी खोल कर उसमें से दो कीड़े निकाल कर उन्होंने बड़ी ख्याति अर्जित की । वापस मगध तक आते आते वह विख्यात वैद्य हो चुके थे । सम्राट बिम्बिसार ने उन्हें अपना राजवैद्य नियुक्त किया ।
आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है । अत्यंत प्राचीन काल से भारत में पाये जाने वाली वनस्पति मृदा वनोपज और अन्य श्रोतों से औषधियों का विकास किया गया । भारत की इंच इंच धरती वनस्पतियों से अटी पड़ी थी तो औषधियों की भी भरमार थी । अब तो बहुत सी औषधियाँ पहचानने वाले नहीं रहे । च्यवनप्राश में उपयोग होने वाले अष्टवर्ग की एक औषधि तो वैद्यराज जीवक के नाम से जीवक ही बोली जाती है , शेष ऋषभक काकोली क्षीरकाकोली मेदा महामेदा ऋद्धि और वृद्धि में से अधिकतर विलुप्त हो गयी हैं और उनके विकल्प प्रयोग किये जा रहे हैं ।
संखिया कुचला और सींगिया को सरसों के तेल में क्षार करके एक दवा बनती थीं जो एक्ज़िमा की रामबाण दवा थी । अनेक पीड़ित रोगियों की काया इस दबा ने कंचन काया कर दी । भारत पर विदेशी आक्रांताओं ने यहाँ के शिक्षण संस्थान फूँक डाले और अपने भी बनाये नहीं लेकिन ग्रामीण भारत इतनी सदियों तक आयुर्वेद के नुस्खों के सहारे ही जीवित रहा ।
स्वतंत्र भारत में डाबर बैद्यनाथ आदि ने आयुर्वेद परंपरा को जीवित रखा लेकिन उनकी औषधियाँ भैषज्य रत्नावली , शार्गंधर संहिता आदि प्राचीन पुस्तकों के नुस्खों तक सीमित रही । नई शोध बहुत कम हुई । आयुर्वेद की शिक्षापद्धति भी एलोपैथिक प्रणाली के प्रभाव तले दब सी गई है । अधिकतर बीएएमएस डिग्रीधारी एलोपैथी पद्धति से ही चिकित्सा करते दिखाई देते हैं । ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबॉयोटिक अनेक जीवाणुजन्य रोगों को एक ही दवा से ठीक कर सकती हैं इसलिये इलाज का एक शॉर्टकट निकल आया है । मूलत: आयुर्वेद एक क्षेत्रप्रधान चिकित्सा पद्धति है जो रोगों के पनपने के लिये शरीर को ही बंजर बना देती जहाँ रोगरूपी पौधे की जड़ ही सूख जाये । लेकिन इसमें समय लगता है जिसका इस युग में रोगी के पास सर्वथा अभाव है ।
शंखपुष्पी और पुनर्नवा जैसी औषधियाँ खेतों खलिहानों में बिखरी रहती हैं । अब जीवन की दिशा बदल गई तो उधर ध्यान नहीं जाता ।
आज जब एंटीबायोटिक बेकार हो चुकी हैं , जीवाणुओं का कारोबार विषाणुओं के हाथ आ लगा है तो केवल आरोग्यवर्द्धक औषधियाँ ही आशा की किरण हैं । आयुर्वेद का हज़ारों वर्षों का इतिहास ही आरोग्य और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का रहा है ।