Sushil Chaudhary's Album: Wall Photos

Photo 877 of 1,342 in Wall Photos

#जब_द्रोपदी_के_पिता_द्रुपद_ने_कर्ण_समेत_100_कौरवों_को_परास्त_किया

106 कौरव कुमारों की शिक्षा द्रोणाचार्य के यहां पूर्ण हो चुकी थी - लेकिन रंगभूमि में पाण्डु के पुत्रों को शकुनि ने नया नाम दिया " पांडव " । कर्ण अब राजा बन चुका था - उसका नया नाम था अंगराज कर्ण --

भीष्म सब जान चुके थे, धृतराष्ट्र कुरुराज्य को गर्त में लेजाने वाला है । दुर्योधन ने कर्ण को प्रोत्साहित कर न केवल राजवंश में फूट डाल दी, बल्कि उसने अपने भाइयो से ही किसी दूसरे को लड़वाकर राजकुल का अपमान और किया ।

कर्ण के रंगशाला में आते ही कुंती चिंतित हो गयी थी, अपने पुत्रों के प्रक्षिक्षण पूर्ण होने की उनकी उमंग उत्सुकता एकदम धूमिल हो गयी । कर्ण ने युद्ध के लिए अर्जुन का आह्वाहन किया , द्रोणाचार्य ने तुरंत अर्जुन को इसकी अनुमति भी दे दी । दुर्योधन भी कर्ण का लगातार समर्थन कर रहा था , ओर धृतराष्ट्र दुर्योधन का , उन्ही के निकट आंखों में पट्टी बांधे गांधारी अपने श्रवणों के माध्यम से एक एक घटना को पी रही थी, ओर मंद मंद मुस्कुरा रही थी , कुंती की बाध्यता यह थी, की इतना सब देखकर भी वह दूर नही जा सकती थी ।

सम्राट पाण्डु का पुत्र उपेक्षित हो रहा था ।। ओर उपेक्षा करने वाले उन्ही महाराज पाण्डु की गद्दी पर बलात कब्जा किये हुए थे , यह पिता पुत्र ने एक साधारण युवक को केवल उकसाया ही नही था, बल्कि अर्जुन के साथ उसकी भिड़ंत के प्रबंध भी करवा रहे थे ।। इतने लोग उपस्थित थे वहां !! भीष्म, सोमदत्त , कृपाचार्य, वृद्ध मंत्री सब ... कोई दुर्योधन को रोकने वाला नही था, सबकुछ उसकी ही इच्छा अनुसार हो रहा था, कोई उसको रोकने वाला नही था, उसके अधिकारों को चुनोती देने वाला नही था ।।

ऐसे में कुंती यह आशा कैसे कर सकती है की हस्तिनापुर का सिंहासन युधिष्ठिर को दे दिया जाएगा ?? जिसे वह अपने पुत्रों के अभ्युथान का मार्ग समझ के लायी थी, वहां तो उसके पुत्रो को घेरकर हत्या कर देने का षड्यंत्र दिखाई पड़ता था ।।

लेकिन जैसे ही कुंती ने कर्ण के दिव्य कवच कुंडल देखे, तो कुंती को ऐसे लगा, जैसे उसकी वर्षो की साधना पूरी हो गयी हो, जिस नवजात शिशु को उन्होने बहाया था, वह आज युवा बनकर कितना सामर्थ्यवान हो चुका है ।। जब चारो ओर अधिरथ पुत्र राधेय अंगराज कर्ण की जय हो रही थी, तो कुंती का मन किया, की वह चिल्लाकर सबसे कहे, यह मेरा लाल है । यह कौन्तेय है, राधेय नही ।। यह सारथी पुत्र नही है, यह युधिष्ठिर का बड़ा भाई है, उसी समय भीम ने जब कर्ण का अपमान किया, तो कुंती को लगा, जाकर भीम को दो चांटे मारे ओर कहे " क्या कर रहा है तू ? तेरा बड़ा भाई है यह --

किंतु कुंती के विवेक ने उन्हें रोक दिया । वर्तमान सदा अतीत के भिन्न होता है, कुंती, अपने इस गोपनीय अतीत को अपने वर्तमान पर आरोपित मत कर , अगर तू अपने इस अतीत को स्वीकार कर सकती , तो फिर इसका त्याग ही क्यो किया ? उसे त्यागा था, ताकि उसके पिता कुन्तिभोज तथा शूरसेन का वंश कलंकित न हो, तब उसे त्यागा, वर्षो तक उससे दूर रही । अपने अतीत का इतना भय था, की उसे फिर ढूंढा तक नही , उसके विषय मे एक शब्द तक मेरी जिव्हा पर नही आया ।।

कुंती के मन मे जैसे बवंडर उठ रहा था -- " आज वर्षो बाद उसे अपना खोया हुआ पुत्र मिला था , ओर वह पत्थर के समान यहां बैठी थी । एक बार अपनी भुजाओं में भरकर अपने बेटे को वक्ष से भी नही लगा पाई , समाज के सामने उसे अंगीकार न करें, लेकिन चुपके से उसके कान में तो कह दे , की कुंती उसकी माँ है, पांडव उसके छोटे भाई है ।। उसे राज्य चाहिए, तो अपनी माँ के पास आ जाये, पांडव उसे अपना बड़ा भाई मानकर सारा कुरुराज्य दे देंगे ।।किंतु वहां कुछ काम न आया, कुंती केवल मूर्छित हो गयी ।।

शिक्षा पूर्ण होने बाद द्रोणाचार्यजी भी द्रुपद से बिना मतलब का बदला लेने को आतुर थे । अब द्रुपद ने कहा - मेने जो शिक्षा दी है, अब उसका फल मांगने का समय आ गया है ---जाओ समस्त कूरू राजकुमारों -- द्रुपद को बंदी बनाकर मेरे सामने ले आये, यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा होगी ।।

इस घटना में सबसे बड़ा आश्चर्य यह था, की कर्ण तथा शकुनि भी कौरव खेमे के साथ हो लिए । कौरवों में द्रुपद की बंदी बनाने का उत्साह पाण्ड्वो से भी ज़्यादा था । द्रुपद एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था, उसे अगर दुर्योधन हरा देता, तो शकुनि ओर कर्ण मिलकर सीधे दुर्योधन के राजा बनने की दावेदारी ठोकते ।। द्रुपद से पहले भिड़ने की होड़ कौरवों में ज़्यादा मची, कर्ण से लेकर सारे कौरव नाचने लगे, की पहले युद्ध मे करूँगा, पहले में करूँगा ...

राजा द्रुपद को जितना बहुत ही कठिन था, राजा द्रुपद खुद धनुष लेकर महल से बाहर निकले, ओर सारे कौरवों को बाणो से बिंद दिया ।। द्रुपद ने चारों ओर से बाणो की ऐसी वर्षा की, की सारे कौरव पल भर में मूर्छित हो गए । उसके बाद कर्ण द्रुपद पर धावा बोलने का सोच ही पाए थे कि महाराज द्रुपद ने कर्ण के रथ, घोड़े, छत्र सब बाणो से काटकर जमीन पर ला पटका । उसके बाद पाञ्चाल राज्य के सभी नागरिक कर्ण , शकुनि समेत कौरव पक्ष के सभी योद्धाओं का मूसल ओर डंडे की वर्षा कर उनका स्वागतं किया । मारवाड़ी भाषा मे कहे, तो लठ मार मार, कमर सीधी कर दी ।।

अंगराज कर्ण तक अपना रथ छोड़कर जान बचाने को भागे :-- " कर्णो रथादवपल्यूतय पलायनपरोभवतः "

सारे कौरव कुमार कर्ण और शकुनि समेत सभी योद्धा पाञ्चाल में बंदी बन गए । इस युद्ध मे द्रुपद के भाई सत्यजीत ने भी भाग लिया, जब सत्यजीत ने यह देखा की अर्जुन द्रुपद को बंदी बनाने बाणो की वर्षा करते हुए आगे बढ़ रहा है, तब सत्यजीत अपने भाई की रक्षा के लिए अर्जुन के रथ पर कूद पड़े । पाञ्चाल वीर सत्यजीत ने अर्जुन को 100 बाण मार बुरी तरह से घायल कर दिया ।। उसके बाद द्रुपद ओर सत्यजीत ने शीघ्र ही अर्जुन को घोड़े रथ समेत ही बाणो से बिंद दिया ।। इन भयंकर मार से अर्जुन पूरी तरह क्रोधित हो बाणो की अंसख्य झड़ी लगा दी । सत्यजीत के घोड़े रथ ध्वजा सब कुछ काटकर अर्जुन ने उसे धरती पर ला पटका । कुछ ही समय मे अर्जुन ने द्रुपद को ऐसे घेरा जैसे बाज समुद्र के सांप को बलात पकड़कर ले जाता है, इसी तरह अर्जुन ने द्रुपद को जकड़ कर बंदी बना लिया, सारी पाञ्चाल सेना में अफरा तफरी मच गई । भीम ने उसके बाद पाञ्चाल को विध्वंश करना प्रारंभ कर दिया ।

अर्जुन को युद्ध भूमि में लगा कि वह द्रुपद ओर उनकी सेना का शत्रु नही है ।। वह उनका विनाश नही चाहता । यदि संभव हो, तो द्रुपद की वीरता और शोर्य की सराहना करना चाहता है, द्रुपद की रक्षा करना चाहता है, द्रुपद का हित चाहता है ।।किंतु इस समय विचित्र स्थिति थी , द्रुपद को बंदी बनाये बिना शिष्य धर्म का पालन नही हो सकता था -- अर्जुन ने तब भीम से कहा - यह सभी हमारे सगे सम्बन्धी है, इनका संहार न करो, केवल द्रुपद को बंदी बनाकर गुरुदेव को सौंप दो भैया --

उधर हस्तिनापुर में भीष्म बार बार सोच रहे है :- द्रुपद से युद्ध स्वयं द्रोणाचार्य ने क्यो नही किया ? हस्तिनापुर ओर पाञ्चाल जैसे मजबूत आर्य राज्य को आपस मे भिड़वाकर दोनो के मध्य खुद को एक शक्तिशाली सैनिक संगठन के रूप से स्थापित कर लिया है । द्रोणाचार्य हमेशा गुरु के रूप में अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाते रहे।। इतना ही क्यो-- क्या द्रोणाचार्य ने कौरवों ओर पांडवों के बीच स्थायी दरार भी नही डाल दी है ?? क्या यह कौरव राजकुमार अपने ही भाइयो के विरुद्ध इस शक्ति संतुलन में आचार्य के आश्रित नही हो जाएंगे ??

भीष्म को लगा - हस्तिनापुर की खुद की समश्या कम नही है, अपने आंगन में द्रोणाचार्य रूपी विष का वर्णन कर हस्तिनापुर ने अपने साथ एक ओर नही कठनाई को ओढ़ लिया है ।। यदि भीष्म आचार्य से मुक्ति भी पाना चाहे, तो भी कौरवों तथा पाण्ड्वो दोनो ला विरोध शायद उन्हें झेलना पड़े । पांडव तो कदाचित सदैव अपने गुरु के आगे श्रद्धाभाव के कारण उनके ऋणी रहेंगे , वे द्रोणाचार्यजी को गुरु के अलावा शायद ही किसी अन्य रूप में देख पाए, किंतु दुर्योधन ओर धृतराष्ट्र की दृष्टि में द्रोणाचार्य अपना सैनिक महत्व साबित कर चुके थे ।। जिसका शिष्य पाञ्चाल नरेश को बंदी बना सकता है, वह स्वयं युद्धभूमि में कितना सामर्थ्यवान होगा - यह कोई भी समझ सकता है , ओर यह भी सब जानते है, की द्रोणाचार्य ने अर्जुन से ज़्यादा शिक्षा भी अश्वथामा को दी है । पांडवों के विरुद्ध सैनिक शक्ति बढ़ाने के लिए दुर्योधन एक ओर सैनिक संगठन तैयार कर चुका है ।। रंगशाला में कर्ण को अर्जुन से भिड़ाने ओर उसे अपने पक्ष में लाने के लिए धृतराष्ट्र ओर उसके पुत्र ने कौनसी निर्लज्जता नही की ?? अश्वथामा को मित्र बनाये रखने के लिए कौनसा नाटक उसने नही किया ? तो क्या आचार्य द्रोण को वह सहज ही अपने हाथों से निकल जाने देगा ?? वह सारथी पुत्र कर्ण को अपनी ओर मिलाने के लिए उसे राज्य दे सकता है, तो द्रोणाचार्य को मिलाने के लिए वह क्या नही करेगा ?? वह सीधे सीधे पांडवों के विरुद्ध युद्ध की बात करेगा, यह निश्चित है, भीष्म जान चुके थे ।।

सहसा उस अंधकार में भीष्म को एक आशा की किरण दिखाई दी, यदि वे चाहते है की हस्तिनापुर सत्ता का अखाड़ा न बने, तो क्यो न धृतराष्ट्र को गद्दी से उतारकर युधिष्ठिर को राजा बना दिया जाए ? यदि वे चाहते है की कूरू राज्य तथा उसके भविष्य को द्रोणाचार्यजी कलंकित न करें, तो धृतराष्ट्र को राजगद्दी से उतारना ही होगा ।। यदि युधिष्ठिर राजा बना, तो राज्य में न हिंसा होगी, न् प्रतिहिंसा , वह न किसी को अपना शत्रु मान उसे नष्ट करेगा, ओर न किसी सबल के आश्रित होकर किसी अनीति का समर्थन करेगा , वह न किसी से भयभीत होगा, ओर ना किसी को प्रलोभन देगा ।।

ओर भीष्म को लगा कि वह एक गहरी निंद्रा से जागे है :-- उन्हें तो यह निर्णय बहुत पहले कर लेना चाहिए था ।। सम्राट पाण्डु का ज्येष्ठपुत्र हस्तिनापुर के सिंहासन का उत्तराधिकारी है । वह व्यस्क है, अपनी शिक्षा भी पूर्ण कर चुका है, अपने भाइयो की सहायता से राजसञ्चालन भी कर लेगा । प्रजा सैनिक तथा भूमि पर आधिपत्य जमाने मे उसे ज़रा भी परेशानी नही होगी, हस्तिनापुर के लिए हित में यही है, की दुर्योधन के षड्यंत्रों को रोकने के लिए युधिष्ठिर को राजा बना दे ।।

उन्होने अपने सारथी को आवाज थी, सारथी रथ ले आओ, मुझे धृतराष्ट्र से मिलना है .....

यहां कुंती तथा विदुर में मन्त्रणा चल रही थी । कुंती में विदुर की ओर देखकर कहा " क्या आपने भी न्याय का पक्ष छोड़ दिया है ? क्या पितामह भी अधर्म की ओर देखकर आंखे मुंद रहे है ?

विदुर ने कहा - नही भाभी !! पितामह सब देख रहे है । उन्होने धृतराष्ट्र के आगे युवराज बनाने तथा जल्द ही उसका राज्यभिषेक करने की बात भी की है -

तो क्या कहा धृतराष्ट्र ने ?? कुंती ने पूछा -

विदुर हंसा !! धृतराष्ट्र राजनीति का सबसे चतुर खिलाड़ी है । वह पितामह की बात सुनकर कहता है ! हां ! अब युवराज पद का अभिषेक हो ही जाना चाहिए - लेकिन एक बार भी वह नही कहता, की युवराज कौन बनेगा ? धृतराष्ट्र कभी नही चाहता कि युधिष्ठिर का राजतिलक हो, वह समय को ब्याज की तरह उपयोग कर मौका पड़ते ही दुर्योधन का राज्याभिषेक कर देगा ।

लेकिन भीष्मजी के कारण हस्तिनापुर में ऐसा कुछ नही हुआ कि कुरुपरिवार युद्ध का मैदान बन जाये, युवराज के पद पर युधिष्ठिर का तिलक हो गया ।।

युधिष्ठिर ने युवराज बनते ही कीर्ति में अपने विश्वविजयी पिता महाराज पाण्डु को भी पीछे छोड़ दिया -- पांडुनन्दन भीम बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा लेने लगे ।। शिक्षा पूरी होने के बाद भीम बहुत ही समर्थ हो गए थे ।। अर्जुन ने भी धनुर्विधा का पूर्ण अभ्यास कर लिया था, पूरे तीन लोक में अर्जुन के धनुष की टंकार से विभत्स दूसरी आवाज नही थी ।। पांडवों का प्रताप बाढ़ सी गति से बढ़ता ही जा रहा था :--

पाण्डु के वीरपुत्रों की दशो दिशाओं में यशकीर्ति बढ़ती देख, धृतराष्ट्र के मुंह का थूक सुख गया, उन्हें पूरी पूरी रात नींद नही आती ..... धृतराष्ट्र जैसे कुरुराज्य के सबसे अधिक हठी बच्चो में एक थे, जन्मांध !! दुसरे बच्चो के खिलौनों को लेकर बैठने वाला, एक ओर तो वह बालक उसका खिलौना नही लौटा रहा , दूसरा वह यह सोचकर व्याकुल है, उसका खिलौना कोई छीन न ले, उसको समझाया जाता है कि यह खिलोना उसका नही है, वह उसे लौटा दे, तब वह उतने ही वजन के साथ मुट्ठी को खींचकर भींच लेता है, ओर जोर जोर से रोने लगता है ।

यहां पाञ्चाल नरेश पराजय की अग्नि में दहक रहे थे, द्रोणाचार्य ने उनके आधे राज्य पर धृतराष्ट्र की तरह ही बलात कब्जा कर अपने पुत्र को राजा बना चुके थे ।। द्रोणाचार्य ने द्रुपद का अपमान किया था, जो किसी भी स्थिति में क्षमा के योग्य नही था, द्रोण ने उसे बूढ़े सांड की तरह बांधकर , सत्य बोलना द्रुपद का जन्मजात स्वभाव था ।। द्रुपद ने द्रोणाचार्यजी को कभी अपमानित करना नही चाहा था, कोई कारण ही नही था , उसका द्रोणाचार्यजी से विरोध ही क्या था ? न उनके मन मे ड्रोन के लिए न तो बैर था, न द्वेष ओर न ही ईर्ष्या थी , यज्ञसेन उर्फ द्रुपद बार बार अपने मन को टटोलता रहा कि क्या उसका द्रोणाचार्य से कोई भी बैर था -- द्रुपद ने जितनी बार भी अपने मन को पलटा, उसके मन ने एक बार भी द्रोणाचार्य से बैर की सांकेतिक स्वीकृति नही दी , उसके मन मे द्रोणाचार्य के लिए कोई दुर्भाव था ही नही, उल्टा वह तो द्रोणाचार्यजी की मदद करना चाहता था, सहायता की दृष्टि से ही तो उसने कहा था, द्रोणाचार्य का पाञ्चाल में सदा स्वागतं रहेगा , ओर वह कह ही क्या सकता था ?? एक गुरुकुल ओर राजसभा में मैत्री कैसे हो सकती है ?? उसमें तो आश्रित या आश्रयदाता का ही सम्बन्ध होता है, द्रोणाचार्य सत्य का एक वाक्य तक सहन नही कर पाया ।। भला सत्य से भी कोई अपमानित होता है ?? मेने कब द्रोणाचार्यजी का अपमान किया ? द्रोण स्वयं ही अपनी स्थिति को अपमानजनक समझ रहा था । आचार्य के रूप में वह खुद को हीन मान रहा था , अन्यथा उसे एक राजा से मित्रता की क्या आवश्यकता थी ?? यदि द्रोणाचार्य आचार्य के स्थान पर ऋषि बनता , तो वह भरद्वाज के समान ब्रह्मज्ञानी बनता, उसमे हीनता का भाव नही आता ।।

द्रोणाचार्य ने अपना पाप कभी देखा ही नही :- उसने कभी अपने मन का कलुष नही देखा, उसने द्रुपद को सत्यकथन कहने का अपराधी मान दंडित किया -- क्या था यह ?? द्रोणाचार्य का अहंकार ?? अहंकारी द्रोणाचर्य अपनी शैशव अवस्था से ही था, गुरुपुत्र के रूप में वह स्वयं को राजपुत्रों से श्रेष्ठ मानता था , सहपाठी के रूप में वह विद्या के अहंकार में खुद को श्रेष्ठ मानता था, उसमे अहंकार ओर स्वयं को श्रेष्ठ मानने का भाव -

तथा हीनता की भावना ।। दोनो ही एक साथ कैसे थे ? क्या हीनता ही अहंकार की जन्म देता है ??

आर्यवत में किसी भी राजा को बड़े से बड़े अपराध और उसके राज्य से वंचित नही किया था, ओर यह द्रोणाचार्य, ब्राह्मण द्रोणाचर्य, तपस्वी द्रोण, आचार्य द्रोण ने उसका राज्य केवल सत्य कहने के अपराध में छीन लिया ।

द्रोणाचार्य !! धूर्त कायर कहीं का । खुद धनुष लेकर मुझसे लड़ने क्यो नही आया, उसका सारा घमंड धूमिल कर देता । एक छोटी सी सत्य बात को वह विष-वृक्ष की भांति पालता रहा । पाञ्चाल के परम्परागत विरोधी कुरुओ के पास गया, कूरू राजकुमारों का आचार्य बन उनके मन मे विष भरता रहा, ओर भेज दिया उसने कूरू कुमारों को, ओर खुद कायर गीदड़ की तरह हस्तिनापुर बैठा रहा ।

कायर !!
कायर !!
कायर !!

इतना ही अहंकार था तो मुझसे खुद अकेला युद्ध करता, किसी बच्चे के तीन गिनने से पहले में द्रोणाचर्य का सिर काटकर जमीन पर लुढका देता । वह श्रेष्ठ शस्त्र का ज्ञाता होकर भी धनुर्वेद का आचार्य होकर भी, मुझसे लड़ने का साहस नही कर पाया, ओर द्रुपद के शत्रुओं से जा मिला ।

अब कैसे प्रतिशोध ले द्रुपद !! वह खुद बूढा हो चुका है । उसके अंग अब शिथिल हो चुके है, ओर लड़े भी किस किस से ? भीष्म से ? द्रोणाचार्यजी से, कृपाचार्य से ? अर्जुन, भीम, दुर्योधन, कर्ण , अश्वथामा , किस किस से ? अगर द्रुपद प्रतिशोध नही लेगा, तो क्या मुँह दिखाए अपनी प्रजा को ?? क्या दुर्बल राजा प्रजा के सम्मुख आंख उठाकर चल सकता है ?? सोमकवँशी राजाओं के वंश के सम्मान का क्या होगा ??

द्रुपद का मन करता है, वह अकेला ही धनुष लेकर निकले, ओर हस्तिनापुर पर आक्रमण कर दे ।। अगर द्रुपद आज युवा होते, तो हस्तिनापुर पर आक्रमण करने से पूर्व एक बार भी नही सोचते , लेकिन अब ? इस समय आक्रमण करने से क्या लाभ ? इस बुढ़ापे में वह युवा छोकरो से सुसज्जित कुरुसेना को परास्त नही कर सकते, यह तो निश्चित आत्महत्या है -- इस अपमान के बाद आत्महत्या तो मेरे चरित्र को कायरता में बदल देगी, कलंक का दाग ओर गहरा हो जाएगा , अगर उसने वीरगति को प्राप्त कर ली, तो उसके पीछे उसके नन्हे पुत्र धृष्टधुम्न , द्रोपदी ओर शिखंडी का क्या होगा , जो पिता के रहने पर ही इतने असुरक्षित है, वह पिता के न रहने पर कितने सुरक्षित होंगे ?

द्रुपद की असमर्थता उसे क्रोध के रुप में जला रही थी , विधाता ने न जाने कौनसे अपराध का दंड दिया है उसे, उसे अब पूरा जीवन ही जलना है ... निष्फल -- निर्धम --

" द्रुपद की बूढ़ी आंखों में आसुंओ की छोटी सी बून्द आकर ठहर गयी - :; मैं एक क्षत्रिय -- ओर मेरा ऐसा निरर्थक जीवन ?? बैर, विरोध, आक्रोश्, हिंसा, घृणा को अपने मन ही मन बसाए रखकर उसके जीवन मे कोई भी क्षण शांति का क्षण हो सकता है क्या ?

मैं अपने बेटे को तैयार करूँगा, वही वध करेगा इस अहंकारी ओर पापी द्रोण का, जो उसके बीच मे आएगा, वह भी उसकी अग्नि के प्रताप से भस्म हो जाएगा, एक क्षत्रिय अपना बदला लेना नही भूलता, द्रोणाचर्य --- तुम्हे अपने अहंकार का दंड अपने प्राणों को देकर चुकाना होगा --

यह द्रुपद की प्रतिज्ञा है -------